गोवर्धन था जिनकी कनिष्ठ ऊँगली पर वो तो भवसागर का तारनहार श्री कृष्ण था छत्रछाया में उनकी दुनियां-जन जन नतमस्तक था , पर मेरे ये दो हाथ जिसमे समायी थी दुनियां मेरी जो देते थे सहारा हजारों हाथों को बढ़ बढ़ कर, आज जब चाहा सहारा मैंने तो वो हजार हाथ भीड़ में खो गए और दूसरे हजारों को सहारा देते और मैं ? अपनी मौन आहों को खुद के भीतर समेटे मुस्कुराती रही अपने गम पर इस अकेले कमरे में और साथ हैं हाथ मेरे किये मेरा मस्तक ऊँचा गर्वित नाज है आखिर ये दो बेहतरीन हाथ तो मेरे हैं नतमस्तक तेरी इस सौगात पर बनाये रखना, ताकत भरना इन हाथों में हे जगदीश्वर! जग के नाथ क्यूंकि होता भी हैं ना अपना हाथ जगन्नाथ | डॉ नूतन गैरोला ०८-०१-२०११ |
जीती रही जन्म जन्म, पुनश्च- मरती रही, मर मर जीती रही पुनः, चलता रहा सृष्टिक्रम, अंतविहीन पुनरावृत्ति क्रमशः ~~~और यही मेरी कहानी Nutan
Sunday, January 9, 2011
अपना हाथ जगन्नाथ - डॉ नूतन गैरोला
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नूतन जी,
ReplyDeleteअच्छी सीख देती सुंदर कविता.
बधाई.
सुन्दर रचना!
ReplyDeleteकामना करता हूँ कि आपका हाथ सदैव जगन्नथ ही बना रहे!
इन हाथों का ही सहारा है, हर कर्मशील को।
ReplyDeleteखुद का सहारा खुद ही बनने की सीख देती एक सुंदर रचना !
ReplyDeleteअपने हाथों पर ही हमेशा भरोसा करना ठीक होता है. कविता अच्छी है.
ReplyDeleteसच कहा है आपने, अपने भरोसे रहने वाले को भगवान का सहारा मिला ही होता है !
ReplyDeleteनूतन जी,
ReplyDeleteअपने हाथो पर भरोसा करने वालों को कभी नहीं पछताना पड़ता है !
सुन्दर अभिव्यक्ति !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
हाथ कर्म और कर्मण्यता का प्रतीक होते हैं. अपने हाथों पर जिन्हें भरोसा होता है वो कहीं भी खुशहाल रह सकते हैं.
ReplyDeleteअत्यंत सार्थक रचना
बधाई
आभार व शुभ कामनाएं