Tuesday, October 30, 2012

नयी सुबह का ख्याल

     
   

                सुबह पर्दों पर दस्तक सी देती हुई कमरे में उतर कर बिखर जाती है ..  सुबह अक्सर जब आती है तो चिंताएं छोटी पड़ जाती .. सुबह के हाथों में या तो करामाती  छड़ी होती जिसके शीर्ष पर चमकता वह जादूई सूरज अपनी रौशनी से दुःख के अंधेरों कों हल्का कर देता ... या कि सुबह अपनी झोली में भर ले आती है  रंगीनियों से भरे अद्भुत नज़ारे और. संगीत चिड़ियों का, पहचानी आवाजों का, सड़क के कोलाहल का ... जिसमे दुख की आवाजें डूब कर घुल जाती ... मैं मन की खिडकी और दरवाजे खोल देती हूँ, कुछ ताज़ी निर्मल हवा, कुछ मृदुल संगीत  खुशियों से भरा सुबह का आलोक मन के कमरे में उर्जा भर देता है ..    फिर यूँ होता सुबह सुबह एक चाय की प्याली की  रस्म ..जो रस्म अभी तक बदस्तूर चली आ रही है  .. और एक मनपसंद  प्याली चाय की हो ही जाती है  ..  बस रात के अंधेरों में उठते चिंताओं के सैलाब सिमट कर सिकुड जाते है .. दिन बाहें पसार कर स्वागत करता है .. चाय के घूंट के साथ बस एक मुस्कान बिखर जाती है ... तब बाल झटकती हुई कहती है सुबह ..रात गयी बात गयी .. अब नया दिन है नयी शुरुआत है और  फिर चिड़ियों की तरह खुशियों से भर  तिनका तिनका तलाशना .. कल की हवाओं में सरक आये थे जो तिनके उनको फिर से समेटना   बुनना.. घरौंदा मजबूत करना, मैं आँगन में कुछ नए फूल आशा और उम्मीद के रंगों से भरे  बो देती हूँ  और प्रार्थना करती हूँ  कि दिन खुशियों से भरा व्  सफल  हो  और रात शांति कों ले कर आये --- सभी ब्लॉग मित्रों कों मेरा सलाम .. शुभप्रभात

 

डॉ नूतन गैरोला – ३० अक्टूबर २०१२

Monday, October 15, 2012

तुम मैं और वह कविता - डॉ नूतन गैरोला



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तुम्हें याद है क्या कि तुम किसी अनजान की कविता सुना रहे थे उस रात …..शायद तुमको तो  मालूम था तब कि कविता किसकी थी …... मैं तो  बस सुन रही थी …...सुनना मेरा काम था और सुनाना तुम्हारा  ….. तुम  तो कविता में खोये थे और मैं? .. . मैं  तुम  में ..

तुम  बोले जा रहे थे --

कुछ विकल जगारों की लाली

कुछ अंजन  की रेखा काली

उषा के अरुण झरोखे में

जैसे हो काली रात बसी

दो नयनों में बरसात बसी  ..

बिखरी बिखरी रूखी पलकें

भीगी भीगी भारी पलकें

प्राणों में कोई पीर बसी

मन में है कोई बात बसी

दो नयनों में बरसात बसी ...

         तुम  सुना रहे थे ..उधर बाहर बारिश का शोर था और इधर अंदर मेरी आँखों में भी बरसात का जोर था …. तुम  इन सबसे अनभिज्ञ पूरे मनोयोग से किताब पर मन लगाए हुए थे और यह  बेदर्द कविता ज्यूं  मेरे ही हाल को बयां कर रही थी …...यही वह कविता थी न जिसने तुमको  नजदीक हो कर भी मुझसे दूर कर दिया था| साथ रह कर भी हम तुम कहाँ साथ थे …. तुम कविता में डूबे मुझसे बेखबर अपने पात्रों को गढ़ते, लिखते, पढ़ते और मैं तुम में खोयी खुद को तुम में ढूंढती अतृप्त सी ….. क्या तुम्हें मालूम है कि आज भी तुम यह कविता मेरे लिए गा सकते हो क्योंकि कुछ मेरा हाल ऐसा ही हो कर रह गया .…. और आज मैं भी गुनगुना रही हूँ एक कविता की पंक्तियाँ

अब छूटता नहीं छुडाये

रंग गया ह्रदय है ऐसा

आंसूं से धुला निखरता

यह रंग अनोखा कैसा |

कामना कला की विकसी

कमनीय मूर्ति बन तेरी

खींचती है ह्रदय पटल पर

अभिलाषा बन कर मेरी |....

अब तो मैं भी जानने लगी हूँ कि यह कविता किस ने लिखी है क्यूंकि अब मुझे भी कविताओं से प्रेम होने लगा है|….और अब वह व्याकरण का घोड़ा मुझे अपनी पीठ से भी नहीं गिरता बहुधा जिसकी लगाम तुम्हारे हाथों में हुआ करती थी | आज मैं उस घोड़े पे सवार सरपट पहुँच जाती हूँ कविताओं की उस भूमि जहां पर कई रंगों की भावनाओं में डूबे महकते हुए अनेक रंगों के फूल खिले होते है,  .... और मैं रंग जाती हूँ उनके रंग में क्यूंकि आज रंग गयी हूँ रंग में तेरे .....और रॅाक स्टार चलचित्र  के इस सूफियाना गीत के बोल अक्सर फूट पड़ते हैं…. 

 

रंगरेज़ा रंगरेज़ा रंग मेरा तन मेरा मन

ले ले रंगाई चाहे तन चाहे मन

रंगरेज़ा रंगरेज़ा रंग मेरा तन मेरा मन

ले ले रंगाई चाहे तन चाहे मन ..

 

 

Posted by डॉ. नूतन डिमरी गैरोला-







       
जब कुछ भी नहीं था, वही था वही था , रंगरेजा




Friday, October 12, 2012

फिर एक नयी शुरुआत - डॉ नूतन गैरोला


          
         Morning-Walk[3]

एक बेडी तोड़ने का प्रयास .. बेहद कस दिया था जिसने जीवन .. बैल की नाक नकेल ..कोल्हू में फिर फिर पेरा गया बैल .. पिंजरे का दरवाजा .. बंद हुआ था ... एक बंद कमरा ... नक्कारखाने में आवाजों का घन सर पर चलता रहा .. तूती प्रताड़ित भयभीत और भी सिमटती रही .. अपने होने की हर जिम्मेदारियों का निर्वहन करती रही और नकारा जाता रहा उसे हर वक़्त .. महीनों की जद्दोजहद और एक दिन हुक्मरानों की गुलामी के तिलस्म को रुखसत कर  … तोड़ के वो बेडी, निकाल के नकेल, खोल के दरवाजा , खुली हवा में तूती बड़े जोश से बजने चली .. पर बज न सकी क्यूंकि काली यादों की परछाइयों ने बेड़ियों की तरह जकड लिया था, नकेल से कस लिया था, चिल्ला कर उठ रहे थे ताजातरीन अतीत के पन्नों के वो मायावी जिन्न और भय के भयावने कमरे में कैद हो रही थी वह .. चंद, अपने से लगते लोग उसे डरावने से कमरे में धकेल बाहर से दरवाजे का कुंडा चढ़ा रहे थे .. भलाई के उसके दुहाई दे रहे थे ... लड़नी होगी उसको ये जंग .. फतह करना होगा उसको ये भय .. अतीत से उठ कर भविष्य के नीले खुले आकाश की ओर देखना होगा .. जिसके लिए आज की अपनी धरती पे आना होगा उसे और सुनहरे भविष्य के बीज बो कर उन्हें सीचना होगा, कुछ समय का इन्तजार कुछ समय की मेहनत.. कल उसका अपना होगा .. जहा वह मधुर मधुर गुनगुनायेगी मुस्कुरायेगी, अपनों को गले लगाएगी ... वह अब चलेगी अकेले ही पर उसे दूर से ही सही तुम्हारा आशीर्वाद चाहिए .. आज से उसका सफ़र शुरू हुआ ..शुभ हो प्रभात शुभदिवस …. डॉ नूतन गैरोला
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Thursday, October 4, 2012

फिर एक चौराहा - डॉ नूतन गैरोला

  



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इम्तिहान, इम्तिहान, इम्तिहान,.. न जाने जिंदगी कितने इम्तिहान लेगी, हर बार एक नया चौराहा, हर बार खो जाने का भय , मंजिल किस डगर होगी कुछ भी तो उसे खबर नहीं ,……. ……..मंथन मंथन मंथन जाने कितना ही आत्ममंथन, हर बार पहुंची उसी जगह ज्यूँ शून्य की परिधि पर चलती हुई …………..चढ़ते, चढ़ते, चढ़ते,.. जब शीर्ष पर पहुचने लगे -थरथरा रहे थे कदम, फूलने लगे थे दम,  मंसूबों की कतरनों को थामें, ढलानों पर फिसलने लगी ….... ……मुस्कानें, मुस्कानें, मुस्कानें , ..देखो! गालों पर खिलती हुई कानों तक पहुंची मुस्काने, चमक रहे थे जो, दिखे नहीं किसी को, उसकी आँखों के धुंधलाते सितारे … शायद उसके भीतर बहुत कुछ टूट गया था, उसका विश्वास चरमरा गया था… फिर भी अभी एक आस है, क्यूंकि अभी कुछ सांस हैं………... उसने अंधेरों में एक चिराग जला लिया है और कम पड़ती रौशनी में चश्मा पौंछ कर पहन लिया है …... क्यूंकि आखिरी सांस भी जिंदगी दे जाती है और क्या पता जिंदगी थाम के हाथ, पहुंचा दे मंजिल के पास …. ..पर फिर मंजिल पर पहुँच कर एक नया मंसूबा एक नया चौराहा, सतत चलते रहने की चाह  .….  यही गति है, यही जिंदगी है, यही जीने का नाम है ..............................

 

                         नूतन - ४/१०/१२ .... १८ : २४

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