Monday, May 18, 2015

चौराहे का घर

स्त्री उठाती है अपनी डुगडूगी अपनी बोरी अपना डम्फरा
मुड कर देखती है फिर से सड़क के उस कोने
जहां नट ने बिछाए हैं सात नौटंकी के साजोसामान
अभी सड़क पर मज़मा लगना बाकी है
वह बुलाता नहीं रहा है पर स्त्री के पलट आने का कर रहा है इन्तजार.....
जम्बुरा भयातुर आँखों को उठा 

इनकार कर रोकना चाहता है नटनी को
पर शब्द मौन हैं और गुनाह के बोझ से पलकें झुकी है
प्रेम कभी कभी कितना कातर होता है एकतरफ़ा होता है
न जम्बुरे ने पुकारा है न नट ने ....
नटनी आज चुपचाप बड़ी चलती है आगे ...
आज उसके पाँव रस्सी पर नहीं कि आसमान पर संतुलन बना सके बिना पाँखो के
वह उन राहों में खड़ी है जहां से रास्ते निकलते है पर लौट कर नहीं आते हैं कभी
प्रलाप करता है रुक रुक कर उसका विद्रोही मन
बुदबुदाता है किसी कोने पर कि

कहो तो छोड़ देती हूँ अपने इन साजो सामान को
तुम्हारे बुरे वक्त के लिए
कभी हाथ तुम्हारे भी खाली न रह जाएँ मेरी तरह
क्या पता तुम थाम सकों कुछेक पलों को इनके बहाने
कि कभी कोई खुशगवार याद इनसे उठ कर तुम्हारे सिरहाने आ सके
क्या पता कभी लौट कर मैं ही आ सकूं इनके बहाने
अभी कही दबी कुचली अधमरी हैं उम्मीदों में साँसें बाकी है .

बोल जम्बुरे तेरी नटनी कहाँ
जब भी नट पूछे तुझसे
कह देना तू उस नट से
स्त्री चौराहों में भी घर बना देती है
कि वो प्रेम की दीवानी होती है
पर चौराहे स्त्री को आहत करते है
खेल तमाशा समझते है
स्त्री चाहती है अपना घर
जिसकी दीवारे अपने प्रेम के रंग से रंग सके ............... अनर्गल आलाप

Tuesday, April 7, 2015

प्रिय ब्लॉग मित्रों,
                         मेरी हाल ही में अनुनाद  ब्लॉग में प्रकाशित कवितायें ... आपकी नजर ...... सादर

डॉ नूतन गैरोला की कवितायें

LinkWithin

Related Posts with Thumbnails