स्त्री उठाती है अपनी डुगडूगी अपनी बोरी अपना डम्फरा
मुड कर देखती है फिर से सड़क के उस कोने
जहां नट ने बिछाए हैं सात नौटंकी के साजोसामान
अभी सड़क पर मज़मा लगना बाकी है
वह बुलाता नहीं रहा है पर स्त्री के पलट आने का कर रहा है इन्तजार.....
मुड कर देखती है फिर से सड़क के उस कोने
जहां नट ने बिछाए हैं सात नौटंकी के साजोसामान
अभी सड़क पर मज़मा लगना बाकी है
वह बुलाता नहीं रहा है पर स्त्री के पलट आने का कर रहा है इन्तजार.....
जम्बुरा भयातुर आँखों को उठा
इनकार कर रोकना चाहता है नटनी को
पर शब्द मौन हैं और गुनाह के बोझ से पलकें झुकी है
प्रेम कभी कभी कितना कातर होता है एकतरफ़ा होता है
न जम्बुरे ने पुकारा है न नट ने ....
नटनी आज चुपचाप बड़ी चलती है आगे ...
आज उसके पाँव रस्सी पर नहीं कि आसमान पर संतुलन बना सके बिना पाँखो के
वह उन राहों में खड़ी है जहां से रास्ते निकलते है पर लौट कर नहीं आते हैं कभी
प्रलाप करता है रुक रुक कर उसका विद्रोही मन
बुदबुदाता है किसी कोने पर कि
आज उसके पाँव रस्सी पर नहीं कि आसमान पर संतुलन बना सके बिना पाँखो के
वह उन राहों में खड़ी है जहां से रास्ते निकलते है पर लौट कर नहीं आते हैं कभी
प्रलाप करता है रुक रुक कर उसका विद्रोही मन
बुदबुदाता है किसी कोने पर कि
कहो तो छोड़ देती हूँ अपने इन साजो सामान को
तुम्हारे बुरे वक्त के लिए
कभी हाथ तुम्हारे भी खाली न रह जाएँ मेरी तरह
क्या पता तुम थाम सकों कुछेक पलों को इनके बहाने
कि कभी कोई खुशगवार याद इनसे उठ कर तुम्हारे सिरहाने आ सके
क्या पता कभी लौट कर मैं ही आ सकूं इनके बहाने
अभी कही दबी कुचली अधमरी हैं उम्मीदों में साँसें बाकी है .
तुम्हारे बुरे वक्त के लिए
कभी हाथ तुम्हारे भी खाली न रह जाएँ मेरी तरह
क्या पता तुम थाम सकों कुछेक पलों को इनके बहाने
कि कभी कोई खुशगवार याद इनसे उठ कर तुम्हारे सिरहाने आ सके
क्या पता कभी लौट कर मैं ही आ सकूं इनके बहाने
अभी कही दबी कुचली अधमरी हैं उम्मीदों में साँसें बाकी है .
बोल जम्बुरे तेरी नटनी कहाँ
जब भी नट पूछे तुझसे
कह देना तू उस नट से
स्त्री चौराहों में भी घर बना देती है
कि वो प्रेम की दीवानी होती है
पर चौराहे स्त्री को आहत करते है
खेल तमाशा समझते है
स्त्री चाहती है अपना घर
जिसकी दीवारे अपने प्रेम के रंग से रंग सके ............... अनर्गल आलाप
जब भी नट पूछे तुझसे
कह देना तू उस नट से
स्त्री चौराहों में भी घर बना देती है
कि वो प्रेम की दीवानी होती है
पर चौराहे स्त्री को आहत करते है
खेल तमाशा समझते है
स्त्री चाहती है अपना घर
जिसकी दीवारे अपने प्रेम के रंग से रंग सके ............... अनर्गल आलाप
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.बहुत शानदार भावसंयोजन .आपको बधाई
आपका ब्लॉग देखा मैने और कुछ अपने विचारो से हमें भी अवगत करवाते रहिये.
चाहती है घर ,पर घऱ के नाम पर एक घेरा रह जाता है उसके लिये .
ReplyDeleteस्त्री चाहती है अपना घर
ReplyDeleteजिसकी दीवारे अपने प्रेम के रंग से रंग सके .
अद्भुत! अद्भुत! अद्भुत!
बेहतरीन भाव और सुंदर सयोंजन.
बधाई स्वीकारें.
सरल शब्दों में शानदार रचना। बधाई।
ReplyDelete............
लज़ीज़ खाना: जी ललचाए, रहा न जाए!!
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " औरत होती है बातूनी " , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteजम्बूरा भी नाचता है एक दिन ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सार्थक रचना
जम्बूरा भी नाचता है एक दिन ...
ReplyDeleteबहुत सुन्दर सार्थक रचना