Tuesday, February 4, 2014

उसके साथ मुस्कुराता है बसंत



उसने देखी थी
तस्वीर
अपनी ही सखी की
जिसमे स्त्री हो जाती है जंगली
जिसके तन पर उग आती है पत्तियाँ
बलखाती बेलें अनावृत सी
कुछ टीले टापू और ढलानें
और
जंगल के बीच अलमस्त बैठी वह स्त्री  
सारा जंगल समेटे हुए
प्रशंसक हैं कि टकटकी बाँध घेरे हुए तस्वीर को  
और चितेरे अपने मन के रंग भरते हुए ..........

तब धिक्कारती है वह अपने भीतर की स्त्री को
कि जिसने
देह के सजीले पुष्प और महक को
छुपा कर रखा बरसों 
किसी तहखाने में जन्मों से
कितने ही मौसमों तक 
और तंग आ चुकती है वह तब 
दुनिया भर के आवरण और लाग लपेटों से.................

वह कुत्ते की दुम को सीधा करना चाहती है
ठीक वैसे ही जैसे वह चाहती है जंगली हो जाना
लेकिन उसके भीतर का जंगल जिधर खुलता है
उधर बहती है एक नदी संस्कारों की
जिसके पानी के ऊपर हरहरा रहा है बेमौसमी जंगल  
और वह देखती है एक मछली में खुद को 
जो तैर रही है पानी में.....................  
वह कुढती है खुद से
वह उठाती है कलम
और कागज में खींचना चाहती है एक जंगल बेतरतीब
पर शब्द हैं उसके कि जंगली हो नहीं पाते
ईमानदारी से जानने लगी है वह 
जंगली होना कितना कठिन है  
असंभव ही नहीं उसके लिए नामुमकिन है
वह छटपटाती है 
हाथ पैर मारती है 
वह मन के विषम जंगल से बाहर निकल पड़ती है ......
....................................................................................
और जिधर से गुजरती है वह
उसके मन के जंगल से गिर जाता है 
सहज हरा धरती पर 
प्रकृति खिल उठती है   
हरियाली लहलहाने लगती है 
प्युली खिल उठती है पहाड़ों में
कोयल गीत गाती है 
और बसंत मुस्कुराता है ................................ ~nutan~

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बसंतपंचमी पर शुभकामनाएं 

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