देखो उस खिडकी से बाहर / बहुत सुन्दर फूल खिलें है / ताकीद किया है मैंने ताकि तुम गलती से भी ना देखो उस ओर / वहाँ खिडकी से बाहर दिखेगा तुम्हें वह माली भी जो कर रहा है बगीचे की हिफाजत / क्या पता उसकी नजर हो बुरी.. तुम कर रही थी उस रोज / अपनी जिस प्रिय मित्र की बात/ सुना है वो हद स्वाभिमानी है /करती नहीं है मुझसे बात / तुम उससे मत जोड़ कर रखना दोस्ती / जिससे बोलूं बस उससे अभिवादन भर रिश्ता रखना / देखो तुम हो बहुत भोली इसलिए मैं चयन करूँगा कि तुम्हें किसको बनाना होगा मित्र और होंगे कौन अमित्र … देखा मैंने कि कह रहे थे लोग, तुम बहुत खूबसूरत हो/ तुमने कभी शीशे में भी देखा है अपना चेहरा / कितना झूठ बोलते हैं लोग ये है मैंने जाना/ तुम उनकी बातों में ना आना/ और जानो कि वैसे भी मुझे सुंदरता से ना कुछ लेना या देना / और अगर देखनी हो सुंदरता तो आइना मत देखो, देखो मेरी ओर, मेरी आँखों की ओर .. आज कल तुम बातें करती हो भ्रष्टाचार के बारे में/ दुनियाँ में फ़ैली दुःख बीमारी की / इस से तुम्हें क्या लेना देना / इन्होने तुम्हें वैसे भी क्या देना / देखो मुझे ही रहती है फिकर तुम्हारी / देखना हो तो देखो मेरा दुःख मेरी बातें / मेरा दुःख तुम्हारे लिए होना चाहिए दुनियाँ का सबसे बड़ा दुःख, सबसे जरूरी बात .. काला रंग तुम्हें बिल्कुल भाता नहीं / हाट में यह काली साड़ी सबसे सस्ती मिली/ पहन लेना इसे और कहना मुझे बेहद पसंद है क्यूंकि नापसंद सुनना मुझे भाता नहीं / और सुना है आज तक वह दिल पर पत्थर रख कर कहती है कि यह साड़ी मुझे बहुत पसंद है .. वह तुम पढ़ रही हो कौन सी किताब / अडोल्फ हिटलर की जीवनी / यह भी कोई पढ़ने की चीज है / पढ़ना हो तो पढ़ो मेरा चेहरा और समझो करता हूँ मैं तुमसे कितना प्यार / और जानो कि जैसा मैं कहूँ तुम्हें वैसा करना होगा / जैसा मैं चाहूं तुम्हें वैसा बन कर रहना होगा / क्योंकि तुम्हारे जीवन की ( मौत की) चाभी है मेरे हाथ / तुम अभी तक महफूज़ हो जिन्दा हो अभी तक, क्या ये कुछ कम नहीं, तो जान लो कि करता हूँ तुम्हें कितना प्यार .. तब उस स्त्री ने किताब तहखाने की अलमारी में बंद कर ली| और उस आदमी की आज्ञा का पालन करती हुवी अपना होना ना होना एक किनारे रख उसकी आँखों के समंदर से गुजरने वाली राहों में अपने अस्तित्व को खोती रही | वह जान चुकी थी कि यह मासूम सा लंबी काया वाला क्लीन सेव्ड आदमी ही “आज का अडोल्फ हिटलर है और वह तब्दील हो चुकी है इवा ब्राउन में|” डॉ नूतन गैरोला .. ०८/०१/२०११ … ००:३३ |
जीती रही जन्म जन्म, पुनश्च- मरती रही, मर मर जीती रही पुनः, चलता रहा सृष्टिक्रम, अंतविहीन पुनरावृत्ति क्रमशः ~~~और यही मेरी कहानी Nutan
Sunday, January 8, 2012
पुनर्मिलन .. डॉ नूतन गैरोला
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bahut hi dilchasp mod....badhai ke sath hi abhar.
ReplyDeleteगहन, जीवन की व्यक्तियों से तुलना, एक विशेष संदेश देती हुयी।
ReplyDeleteसोचने को मजबूर कर दिया।
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट।
ReplyDeleteगजब के भाव।
अति सुन्दर..
ReplyDeleteबहुत ख़ूब...
ReplyDeleteआपके इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 09-01-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ
गहरी बात ... एक ही सांस में जैसे पढ़ गया ... और अंत अलग ही अंदाज़ लिए ...
ReplyDeleteगहरे सन्देश - वाह !
ReplyDeleteis kawyatmak gady me jo ishare se apane samajhaya hai wah kuchh kee bhe ankhe khol de to kafi hai.
ReplyDeleteबहुत गहरे भाव लिए सुन्दर अभिव्यक्ति| धन्यवाद|
ReplyDeletenice post
ReplyDeletelike it
mere blog par bhi aaiyega
umeed kara hun aapko pasand aayega
http://iamhereonlyforu.blogspot.com/
कथानक प्रस्तुति का बिल्कुल ही नया अंदाज, गद्य और पद्य का ऐसा सम्मिश्रण पहली बार देखा
ReplyDeleteऔर अंत .....बहुत ही सटीक.
इसका संदेश किसी न किसी को जरूर लाभ पहुँचायेगा.वाह !!!
एक सीख देती हुई कहानी।
ReplyDeleteशैली रोचक है।
jabardast ! jabardast ! jabardast !
ReplyDeletemeri aankhe hairani aur sacchayi se khul gayi.
hairani se isliye ki aisa tarika bhi ho sakta hai apni baat ko seedhe padhne wale ke bheeter bahut bheetar tak pahuchane ka.
sacchayi jo ye lekhan bayan kar rahi us se bhi khuli ki khuli rah gayi.
LAAJAWAAAAB !
बहुत बढिया प्रेरक प्रस्तुति,भावनाओं की सुंदर अभिव्यक्ति,ज्ञानवर्धक पोस्ट ......
ReplyDeleteWELCOME to--जिन्दगीं--
मै समर्थक(फालोवर)बन रहा हूँ आप भी बने मुझे हार्दिक खुशी होगी.
ReplyDeleteबहुत ही भावप्रणव अभिव्यक्ति!
ReplyDeleteoh ...gahan ...aur katu satya ...
ReplyDeletebahut sunder rachna ...badhai ...
वाह वाह...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया...
एकदम निशाने पर मारा आपने तीर....
बेमिसाल...............
कितना कड़ुवा सच..बचपन से बड़े होने तक इस तरह की बातें हरेक को किसी न किसी से सुनने को मिली हैं... हरेक ने सुनाई भी हैं दूसरों को..काश हम न बनें कभी ऐसे..
ReplyDeleteपाठक को बांध लेने में सक्षम रचना। बधाई।
ReplyDelete------
मुई दिल्ली की सर्दी..
... बुशरा अलवेरा की जुबानी।
आपका पोस्ट अच्छा लगा । मेरे नए पोस्ट "लेखनी को थाम सकी इसलिए लेखन ने मुझे थामा": पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद। .
ReplyDeleteबेहद ख़ूबसूरत अभिव्यक्ति ! शानदार प्रस्तुती!
ReplyDeleteआपने मुझ से ई मेल पूछा.
ReplyDeleteउत्सुकता वश आपके ब्लॉग पर चला आया
तो आपकी इस नई पोस्ट को पाया.
मेरे डैस बोर्ड पर यह नही दिखी,
आपकी इस पोस्ट को पढकर दिल सोचने को मजबूर है.
क्या अडोल्फ हिटलर की ऐसी ही सोच थी ?
yah antim line sarthak hai us vyakti ke liye .......achhi rachna .
ReplyDeleteमैंने टिपण्णी की थी इस पोस्ट पर.
ReplyDeleteअभी तक भी दिखलाई नही पड़ रही है.
जरा चैक कीजियेगा नूतन जी.कहीं spam
में ही हो.
बढ़िया .../// इसे भी देखे :- http://hindi4tech.blogspot.com ////
ReplyDelete"तब उस स्त्री ने किताब तहखाने की अलमारी में बंद कर ली.... अपने वजूद के साथ...और लौट आई खाली हाथ एक जिन्दा लाश हो जैसे.."
ReplyDelete"तब उस स्त्री ने किताब तहखाने की अलमारी में बंद कर ली.... अपने वजूद के साथ...और लौट आई खाली हाथ एक जिन्दा लाश हो जैसे.."
ReplyDeleteऐसे कितने ही हिटलर औरतों का जीवन नष्ट कर देते हैं. बहुत अच्छी कहानी, नूतन. बधाई.
ReplyDeleteबहुत अच्छी कहानी...हिटलरों की कमी नहीं इस दुनिया में.
ReplyDeleteरिश्तों की त्रासद अवस्था और उसमें जकड़े रहने की विवशता का सार्थक वर्णन!
ReplyDeleteप्रस्तुति की शैली बड़ी उपयुक्त है!
सादर!