मैंने पाया बसंत घर की दालान से बाहर आम्र मंजरी बन् पेड़ों पर खिलता रहा टेसू पर दहकती लालिमा लिए सरसों बसंत की ओढनी ओढ़े हुए कुहुक कर बुलाती कोयलिया मुझे और मैं दीवारों के भीतर के पतझड़ को चुनती रही मौन डाली से गिरे पत्तों को समेटती रही आस्था के जल से सीचती रही कि खिलेगी बहार मेरे घर के भीतर भी मेरी जिद्द है कि इन ठूंठ पर भी उग आये हरे कोंपल मेरी जीत के या कि हार कर हो जाऊं मैं भी ठूंठ ........……… नूतन ९:४४ रात्री १८ / ३/ २०१३ |
बहार अवश्य खिलेगी घर के भीतर....
ReplyDeleteसुन्दर अभिव्यक्ति...
अनु
घर बाहर एक साम्य बिठा लें,
ReplyDeleteआज प्रवाहों को बहने दें।
बसंत के मौसम में बहारें आयेगी ही,,,बेहतरीन,,
ReplyDeleteRecent Post: सर्वोत्तम कृषक पुरस्कार,
कभी कभी हार कर भी जीत को हासिल किया जाता है..
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ReplyDeleteसुंदर प्रस्तुति
बधाई
aagrah hai mere blog main sammilt hokar pratikriya de
jyoti-khare.blogspot.in
aabhar