Thursday, August 30, 2012

मैं अबला नहीं - डॉ नूतन गैरोला




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मेरी हदों को पार कर
मत आना तुम यहाँ
मुझमे छिपे हैं शूल और
विषदंश भी जहाँ |
फूल है तो खुश्बू मिलेगी
तोड़ने के ख्वाब न रखना|
सीमा का गर उलंघन होगा
कांटो की चुभन मिलेगी …
सुनिश्चित है मेरी हद
मैं नहीं
मकरंद मीठा शहद ..
हलाहल हूँ मेरा पान न करना |
याद रखना
मर्यादाओं का उलंघन न करना ||


      *********
“शहद” शीर्षक के नीचे लिखी गयी मेरी कविताओं के संकलन से   एक कविता********** डॉ नूतन गैरोला

Friday, August 3, 2012

वह आदमी और उसका साथ --- नूतन

  
                  
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                      वह आदमी ..एक छोटा बच्चा सा .. पहली बार मेरी पलकों का खुलना हुआ .. मैंने पाया अपलक निहारता मुझ पर झुका हुआ   .. बचपन का साथी रहा वह मेरा अब मेरे संग अधेड़ हुआ जा रहा था   .. कई कारवाँ जुड़े और टूटे पर उसका जुड़ाव कभी न टूटा ..बंधा हुआ था वह मुझसे अद्रश्य किसी डोर से .. देखा मैंने उसको कितने ही आवरणों को बदलते .. रंग बदलते … देखा मैंने उसको सुनहले रंग में और देखा उसके आँखों के अंदर कितना गहरा काला  ..मुसीबतों के मझधार में डूबती मेरी कश्ती को मुस्कुरा कर पार लगाता .. मेरे आँखों से आंसू छलक आते तो कहता चल पगली अब हँस भी ले…वह अपनी आरामदेह बाहों में लपेटे रहता .. पर कभी कुटिल मुस्कान के साथ .. अच्छी खासी हरियाली राहों से उठा दुःख के भट्टी में मुझे धकेल देता.. मैं चिल्लाती रह जाती ..लेकिन जब भी ऐसा करता हर बार मुझे निकाल भी देता .. कुछ ढ़ींठ भी था वह .. लेकिन हर बार उस भट्टी की आंच से मैं खुद को निखरा पाती… शायद वह मुझ में और निखार चाहता था … कभी रुग्णावस्था में मुझे अस्पताल भर्ती किया जाता तो वह रात दिन की ड्यूटी देता मुझसे थोडा छिटक कर  .. और जब अस्पताल से छुट्टी मिलती तो वह भी अन्य लोगो के साथ मुझे थामे घर ले आता …हर अँधेरे में हर उजाले में .. चाँद सूरज गवाह थे और अँधेरा भी .. उसका मेरे संग होना ..| समुन्दर की लहरों का पांवो पर मचलना  या बादलों को ऊपर से झांकते मुझे रिमझिम बरसा में पिघलाना .. अपनी साँसों से फूंक जाता था वह सांस मेरी .. पर जब भी जानना चाहा उसका नाम बड़ी चालाकी से टाल जाता था वह ..कह देता था तुम्हें आम खाने से मतलब या गुठली गिनने से …
                       मैं कैसे कहूँ कि इतने बरसों में मुझे उसे देखने की आदत हो गयी है …जो आदत, आदत हो जाती है वह आदत नहीं, जिंदगी हो जाती है .. भला कोई अपनी धडकनों को जान पाया है कभी या कोई अपनी साँसों को आते जाते देखता है वह मेरी वैसी ही तो आदत है जिसे मैं समझती नहीं पर जो है और मैं उससे बेपरवाह  ..
                            आज  उस कालगर्त में पैर फिसलते अँधेरे में किंचित घबराई न थी मैं जब तक मैंने जाना था वह मेरे साथ है   .. फिर मैंने पाया था महज चार कन्धों पर मिटटी का एक ढेर  मुझसे था | लोंग पुकार रहे थे उस आदमी को क्यूंकि वो  मेरा और मेरा ही साथी था .. मैंने   भी उसे पुकारा पर अब वह सुनने वाला न था क्यूंकि समय की घिरनी में उसका मेरा साथ इतना ही था .. वह  दूर  जा चुका था ..  मैं उस अंधियारे गर्त से निकल दूर क्षितिज में एक चमकते सितारे की ओर बढ़  चली जहां शायद वह मुझे फिर से मिल जाए .. आज जाना था मैंने उस आदमी का नाम | वह मेरी “ जिंदगी” था |
  

                               जिंदगी फिर से मिल जाना, मुझको गले लगाना |

………….डॉ नूतन गैरोला ---  3 अगस्त 2012 …  समय -  11 : 50 AM

Wednesday, August 1, 2012

पहला स्पर्श छुईमुइ सा



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एक हल्की छुवन

जैसे किसी ने मयूरपंख से छु कर

प्रेम के अनजान सुप्त समुन्दर में

लहरों को जगा दिया हो …

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अनुभूतियां तरंगित हुवी

लाज से वह सिमट गयी …

माथे पे बूंदें

शबनम सी घबरा के निखर गयी …

गालों पे

सुर्ख गुलाब शरमा के उभर आये ..

चितचोर की झलक पे

पलकें झुकी जब उठ न पाए …

कहने को तो जाने क्या कुछ बहुत न था

आवाज बंद थी होंठ लरजाये…

अंग अंग बोझिल हुआ

मदभरा शुरूर छाये …..

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यह पहला स्पर्श था सावन का..

बूंदों की रिमझिम पर

छुईमुई सी वह लजा जाए |… ....

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डॉ नूतन गैरोला .. ८/१/२०१२,,, ८:१६ सुबह …….मेरी नीजि खींची तस्वीर … घर के आंगन में छुईमुई पे जब फूल खिला तो मैं तस्वीर लिए बिना न रह सकी  .. तस्वीर भी आज ही की  खींची हुई …

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