यह मामला दिल्ली का ही नहीं, यह मामला सम्पूर्ण देश का है| ………यह मामला महज आदिवासी, शहरी, ग्रामीण, शिक्षित अशिक्षित, गरीब या पैसे वाली नारी या किसी धर्म और जातिवर्ग का नहीं, यह मामला संपूर्ण नारी जाति का है | ………… ……………. यह मामला सिर्फ नारी से ही नहीं जुड़ा है यह हर पुरुष से जुडी उसकी स्त्री का है | ....…….. और यह स्त्री माँ, बहन, बेटी, पत्नी, प्रेमिका या किसी भी रिश्ते के रूप में हो सकती है .……..
काश कि समाज में कोई ऐसी जगह होती जहाँ नारी सुरक्षित होती ...उसके लिए तो वह माँ की कोख भी सुरक्षित नहीं जहाँ वह अभी अजन्मी है..... .. लेकिन क्या करे पुरुष प्रधान समाज में बनी स्त्री की छवि, नारी प्रगतिशील होने पर नारी के ही विरोध में खड़ी हो गयी और हम आदि हो गए उसको कुचलता देखने की .... खुद नारी भी नारी के दुश्मन हो चली जिसका परिणाम आये दिन स्त्री पर कई किस्म के अत्याचार होने लगे परोक्ष और अपरोक्ष … जिनके आदी हो चुके थे हम... रोज अखबारों में ऐसी घटना का जिक्र आम हो गया था...क्यूंकि आम हो गया था विज्ञापनों में नारी देह की नुमाइश .. और आम हो गया था अश्लील साहित्य, चलचित्र और गाने, चाहे दुकानों में या अंतरजाल में,... आम हो गया था नैतिकता का पतन क्यूंकि घर में किसी के पास किसी के लिए फुर्सत नहीं थी, जो सीख दे समझाए ...शहरों में पड़ोस को पड़ोस की खबर ही नहीं ऐसा आम हो गया था … आम हो गया दहेज के लिए स्त्री का उत्पीडन .. और पुरखों से चला आ रहा था वंश वृक्ष, जहां न था स्त्री का कोई नामोंनिशान, वंश के नाम पर कन्या का कोख में क़त्ल सरेआम हो गया, इसका अंजाम - स्त्री का मिटने लगा नामों निशान - पुरुष अधिक और स्त्रियाँ कम, विकृत आदमी परेशान हो गया, और घर व बाहर स्त्री का जीना हराम हो गया, अब माँ की कोख में जी लेना भी उस स्त्री के लिए इम्तिहान हो गया | ….स्त्री महज स्त्री देह भोग का समान हो गया, सोच का आसमान समाज का संकीर्ण होता गया और पाश्चात्य परिधान हो गया| कसी जाने लगी फब्तियां, छेड़छाड़ और यौन कुंठाओं से ग्रसितों का नारी पर तेज़ाब फैंकना आम हो गया ..आम हो गया बलात् अपमान दूधमुही बच्ची का, प्रौढा का, किशोरी का, उसके बाद ह्त्या करना आम हो गया .. शायद किसी ने अनाचार की आवाज सुनी हो उस रात ...पर शायद कान बहरे हो गए हो उस वक़्त क्यूंकि ऐसा सुनना और निज और निजता आम हो गया ......... लेकिन हद की भी एक सीमा है - अति होने पर अति का अंत हो जाता है और कहीं न कही तो एक किनारा है जहां से शुरू होगी एक नयी सोच, सोच का खुला आसमान, नैतिक मूल्यों का परिपालन, नारी का सम्मान, और न्याय का नया क़ानून कि रुक सके ऐसे हादसों की पुनरावृति .... और शायद हम उस अंत तक पहुँच चुके हैं जहां से शुरूआत होती है एक सुरक्षित समाज की… ऐसा समाज जहां बेटी, माँ, बहन सुकून से जी सकें .. पुरुष, महिला बन कर नहीं बल्कि देश के नागरिक बन कर ...... और आज का वैचारिक, प्रगतिशील पुरुष भी कंधे से कंधा मिला कर उसके साथ है .. समाज ने महासंग्राम की बिगुल बजा दी है ... चेत जाओ तुम नारी की ओर कुदृष्टि करने वालों ... अब अपने अंजाम से खौफ खाओ | पर हां! लेकिन ये बहुत नहीं, ये चंद लोंग हैं जो समाज में खतरे का ज्वालामुखी है पर ये समाज के अंदर चली आ रही दबी प्रवृति, दबी मानसिकता का उग्र रूप है जो कभी भी किसी भी स्त्री कों अपना शिकार बना लेती है .. ये उग्र हो जाते है, हवस के प्राप्ति के लिए यूँ कहें कि ये साफ़ तौर पर मानसिक रूप से विकृत लोंग हैं, किन्तु उन लोगो का क्या जो सहज लगते हैं किन्तु समाज के ढाँचे में उन लोगो के मन में भी औरत एक इस्तेमाल करने वाली वस्तु जैसी दिखाई देती है, वह इस बात कों स्वीकार नहीं करते, लेकिन अश्लील दृश्य, अश्लील संवाद और अश्लील साहित्य और चलचित्र उनकी दबी मानसिकता कों उकसाते हैं, तो वो अपना मानसिक संतुलन खो कर महिला के साथ बलात कर जघन्य अपराध कर जाते हैं तथा खुद कों बचने के लिए लड़की की ह्त्या भी कर देते हैं| समाज में ऐसे सुप्त वहसी बमों की कमी नहीं है, जो किसी भी अनजाने पलों में कहीं भी अपने आसपास की बच्चियों और स्त्री के लिए खतरा बन जाते हों| इसके लिए यही समाज दोषी भी है| जहां स्त्री कों दोयम दर्जे की वस्तु माना गया | जन्म के बाद होश में आने पर बच्चे और बच्ची ने , भाई बहन और अपने माता पिता के रूप में स्त्री और पुरुषों के अधिकारों में जमीन आसमान का अंतर देखते हैं, स्त्री घर के अंदर शोभायमान होती है, और पुरुष घर के बाहर| यह सब उनके मन में गहरे पैठ जाता है और बड़े होने पर अगर कोई लड़की या स्त्री रात कों घर के बाहर दिखे तो उन्हें ये स्त्रियोंच्चित गुणों विलग हुई, कोई बुरी लड़की / स्त्री दिखने लगती है, और गन्दी नजरों से उन्हें देखने लगते हैं | समाज में विज्ञापनों में स्त्री देह, इन्टरनेट की कुछ साइट्स में अश्लील सामग्री, पोर्न फिल्म्स, अश्लील साहित्य आदि जो सस्ते भी होते हैं उनकी उपलब्धता ऐसे विकृत दिमागों की विकृति बढ़ा देती हैं, और ऐसे एक थैली के चट्टे बट्टे साथ हो तो कुकर्म करने के लिए एक दूसरे के साथी हो जाते हैं... अज्ञान, अधकचरा ज्ञान, संस्कारविहीनता, शिक्षा का अभाव सब मिल जुल कर गलत प्रभाव डालता है| आजीविका के लिए परिवारों से दूर आये ऐसे लोग, जिनके साथ न उनकी बहने होती है, न कोई महिला, और उनकी बस्तियों में महिलावर्ग भी नहीं होता| उनकी कल्पना में शहर में लड़कियां किसी परी से कम नहीं होती, और वह इनकी सतत अभिलाषा रखते हैं| परिस्तिथिजन्य किसी वाकया में, या योजना के हिसाब से ये किसी स्त्री पर हमला बोल देते हैं| लेकिन कई बार यौन कुंठाओं से ग्रसित आदमी अपनी यौन तुष्टि के लिए कमजोर बच्ची या बुजुर्ग को भी साधता है| शाम के खाली समय में इन लोगो को नैतिक शिक्षा और शिक्षा मिलती रहे ताकि इनमें भी समाज को अच्छा नागरिक मिले ... इसलिए मैंने कुछ बिंदुओं पर विचारा कि कैसे हम अपने समाज से इस बलात्कार की गन्दगी को हटा सकते हैं .. और पाया एक स्वस्थ के संस्कारी नागरिक रुढिवादिता से दूर ही सुरक्षित है .. कुछ बिंदु - एक स्वस्थ और सुरक्षित समाज की नींव घर से पडती है| घरों में बच्चों कों अच्छी नैतिक शिक्षा बचपन से मिलती रहे | क्या अच्छा है क्या बुरा है, उसको वह पहचान सके, और अपना सके| ऐसे बच्चों से एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा|
- बेटी बेटे में , भाई बहन में कोई फर्क न रखें| घर की महिला कों अच्छा पौष्टिक भोजन और बराबर का सम्मान मिले ताकि वह घर के लिए स्वस्थ तन मन से कार्य कर सके|
- महिला पुरुष कों सामान अधिकार और सम्मान मिले| घर में घर की नारियों कों सम्मान और बराबरी का अधिकार मिले .. यही सब कुछ देख समझ के आज का बच्चा जो कल का नागरिक है, समाज में एक बेहतर सामाजिक भूमिका निभाएगा .. और महिलाओं के साथ घटती ऐसी घटनाओं में बहुत कमी आ जायेगी
- वंशवृक्ष को सिर्फ पुरुष चलता है इसलिए वे महिलायें जिनसे परिवार को पुत्र रत्न नहीं मिला, उस परिवार के लिए उनका ब्याह कर उस परिवार में आना दुखद था ऐसी संकीर्ण मानसिकता से बाहर आना होगा| पुत्र प्राप्ति के लिए महिलायें ही अपने गर्भ में स्त्री भ्रूण की हत्या कर देती है| यह समाज का सबसे काला पहलु है जहां माँ ही हत्यारी है| इसके होने से आज कई जगह ऐसी हैं जहां लडको की तुलना में लड़कियों की संख्या काफी कम हो गयी है| शादी के लिए लड़किया नहीं मिलती | असंतुष्ट पुरुष अपनी तुष्टि और यौन इच्छा के पोषण के लिए कौन सा कदम उठाये, यह उसके विवेक पर है| लेकिन यह स्तिथि अपराधिक मानसिकता को बड़ा सकती है|
- साथ ही मीडिया भी समाज के लिए बेहतर भूमिका निभाए … विज्ञापनों के लिए नारी देह का शोषण न होने दें और अश्लील गानों चलचित्र साहित्य पर जहां कहीं भी हो रोक लगाएं |
- बाजारीकरण के दौर में नारी अपनी अस्मिता को समझें, वह देह से आगे बहुत कुछ है| सामान की खरीद फरोख्त के लिए विज्ञापनों में अपनी देह की नुमाइश न कर बाजार की नीती को समझें , नारीजाति के हित को समझे |
- सामाजिक साराकारों के लिए सब आगे आयें| कहीं कोई दुर्घटना घट रही हो या कोई आपत्ति में हो तो उसकी मदद तत्परता से करें| कम से कम पुलिस कों सूचना तो दे सकते हैं| किसी लड़की को अगर लड़के छेड़ते हैं तो इसका विरोध सभी को करना चाहिए|
- नारी को भी अपनी सुरक्षा का मापदंड स्वयं तय करना होगा| समय स्तिथि और माहोल और वातावरण के हिसाब से खुद कों ढाल सकने की क्षमता, अपनी सुरक्षा के लिए विकसित करनी होगी| किन्तु अगर वह सिर्फ अपनी नजर से देख कर यह सोचे कि परिधान वह कम से कमतर अपनी इच्छा के हिसाब से पहने और कोई उसकी ओर कुदृष्टि से न देखे तो ऐसा राम राज्य सिर्फ कल्पना में हो सकता है क्यूंकि समाज का एक वर्ग अपराधिक मानसिकता का है जिसके जेहन में संस्कारों की बात उतरती नहीं| हमारी जंग इस समाज से भी है फिर भी नारी तय करे कि वह अगर कामुक वस्त्र पहनती है तो उसकी अपनी सुरक्षा का कितना इंतजाम है|
माना कि बलात्कार बच्चियों का भी हुआ और पर्दे में रहने वाली स्त्री का भी हुआ यहाँ तक की वृद्ध महिलाओं का भी, तो भी भड़काऊ कपडे असामजिक तत्वों को निमंत्रण देते हैं, नारी को इस विषय में सजग रहना चाहिए क्यूंकि उसकी सुरक्षा का मुद्दा सबसे बड़ा मुद्दा है| वह अपनी पसंद के स्टायलिश फेशनेबल कपडे पहने, जो कि उसका अधिकार भी है, लेकिन अपनी सुरक्षा को न भूलें| - जुडो, मार्शल आर्ट, कराटे, हर बच्ची महिला को सीखना चाहिए| क्यूंकि अपना हाथ जग्गननाथ | महिला बाहरी सहायता मिलने तक कुछ समय अपराधियों का सामना कर सकती हि खुद को सुरक्षित रख कर
- समाज को नारी की दोहरी छवि कों मिटाना होगा जिसमे एक तरफ देवी तुल्य और दूसरी तरफ कमजोर इस्तेमाल की चीज जिस पर पुरुष का अधिकार है .. जबकि आज की नारी प्रगति चाहती है, बराबरी का अधिकार चाहती है, समाज इन छवि से ऊपर उसे उभरने नहीं देता | हमें सोच को बदलना होगा और इस प्रगतिशील उन्नत स्त्री को इन रूढ़ीवादी छवि से बाहर निकालना होगा क्यूंकि ये दोनों छवियाँ उसके शोषण का कारण है| कहीं प्यार से तो कही जोरजबरदस्ती से उसका शोषण ही होता है और इन दोनों छवियों से बाहर उसको अपराधी करार किया जाता है …जिसकी वजह से बलात्कार का शिकार होने के बावजूद अपराधियों का गुनाह कम माना जाता है और पीड़ित महिला का गुनाह ज्यादा माना जाता है और बलात्कारी को वो सजा नहीं मिलती जो उसे मिलनी चाहिए|
- पीड़ित लड़की या महिला वैसे भी कितनी शारीरिक मानसिक पीडाओं से गुजरती है | कम से कम समाज तो उसकी ओर न ऊँगली उठाये, जो गुनाह उसने नहीं किया, उसका गुनाहगार उसे न ठहराए|
- एक बात और कि छोटे बच्चे व् मासूम भोली बच्चियां अपने साथ घटती घटना का जिक्र अपने माँ पिता और किसी से भी नहीं कर पाती जिसकी वजह से बलात्कारी ( जो कि एक पडोसी से ले कर खास अपना रिश्तेदार भी हो सकता है) रोज रोज उसका दैहिक शोषण करता है| बच्ची जिंदगी भर कुंठाओं से भर कर जीती है | माँ पिता और घर के बुजुर्गों का यह कर्तव्य है कि बच्चे के हावभाव समझें, उसको जोर जबरदस्ती किसी के हवाले न करके जाएँ | उसके अंदर इतना आत्मविश्वास जगाओ कि वह वह आप से इस तरह की बातें बेहिचक शेयर कर सके| जब वह इस तरह की बात करने की हिम्मत जुटाता हो तो उसे बीच में न टोक कर उसकी पूरी बात सुननी चाहिए| अक्सर देखा जाता है कि बच्चों के मुंह से ऐसे विषय पर हुई बातों को एकदम यह कह कर रोक लिया जाता है कि बच्चों की मुंह से ऐसी बातें अच्छी नही लगती| बलात्कार का शिकार बच्चा दुविधा में पड़ जाता है जहां उसका कोई अपना सुनने वाला नहीं होता और वह एक घुटन भरी जिंदगी जीने के लिए मजबूर होता है और बलात्कार ( Child Abuse ) का शिकार होता रहता है|
- सजा - यूँ तो सजा देना एक मात्र उपाय नहीं .. समाज की मानसिकता में बदलाव ही सबसे जरूरी कदम है, फिर भी बलात्कार के दोषी को इतनी कड़ी से कड़ी सजा मिले जो खुद में एक मिसाल हो, ऐसे असामाजिक तत्वों के रोंगटें खड़े हो जाए कि उसके ऐसे बलात्कार और हत्या जैसे अपराध की और बड़ते कदम रुक जाएँ … सन १७३५ ( लगभग ) का अग्रेजो के समय में उस देश काल परिस्तिथि के हिसाब से बना क़ानून जिसमे अभी सिर्फ एक बार मामूली संशोधन हुआ है वह आज के परिपेक्ष में अधूरा है ..ज्यादातर बलात्कारी बच जाते हैं .. महिला का शोषण और यहाँ तक की अगर बच्चे की मौत या रेप ओरल रूट या अप्राकृतिक सम्बन्ध के द्वारा किये गए बलात्कार से होती है तो भी कानून की दृष्टि में वह बलात्कार की श्रेणी में नहीं आता .. ऐसे क़ानून को बदलने की दरकार है| महिला और बच्चे के शरीर पर हुए हमले जो कि इसी गन्दी मासिकता के चलते किये गएँ हो वे रेप की श्रेणी में आने चाहिए उसमे सेक्स हुआ की नहीं यह नहीं देखा जाना चाहिए| अपराधी की मानसिक सोच और मनसा पर ही पर ही उसको कड़ा से कड़ा दंड मिले| ऐसे संशोधनों की आवश्यकता है जिसमे अपराधी को तवरित सजा मिले|\
- समाज में ऐसी संस्थाओं को बल मिले और उनका साथ दिया जाए जो समाज के हित के लिए एकजुट हैं| और संस्थाओं को मिलजुल कर आगे बड कर समाज में रेप के विरोध और निर्मूलन के लिए तर्कसंगत स्थायी रास्तों की तलाश कर सरकार से मिल एक वैधानिक नीति तैयार करें |
- बाकी अभी इस मुद्दे पर कई और बातें हैजो बाद में जोड़ी जायेंगी जब समाज का की हर स्त्री पुरुष बोलेगा तो उनका नजरिया भी अहम होगा |
मेरे अस्पताल के अभी के सात महीने के आंकड़े - हतप्रभ थी उस चार साल की बच्ची को देख कर जो अगवा कर कई दिनों कुकर्म के बाद उसे छोड़ा गया था ... वह अपने माँ पिता का नाम बताने में असफल थी और और शहर या गाँव का नाम भी न बता पायी थी .. बाजार में भटकती, रोती, बिलखती इस बच्ची कों चेकअप और इलाज के लिए अस्पताल में लाया गया था, जहां मैंने इसे देखा था दूसरी बच्ची अस्पताल में लायी गयी थी वह ९ महीने की थी, जो स्त्री पुरुष क्या होते हैं, यह भी न जानती थी .. वह भी कुकर्म का शिकार थी तीसरी एक लड़की थी जो गेंगरेप की शिकार थी .. चौथी एक विक्षिप्त महिला थी जिसका तीसरा बच्चा ऑपरेशन करके निकालना पड़ा था | यह मेरे सात महीने के आंकड़े हैं जिनकी मुझे जानकारी थी, ( मेरी जानकारी में न हों और दूसरे डॉक्टर की ड्यूटी में हो और मुझे जानकारी नहीं थी - ऐसे भी कई केस रहे होंगे) जो सरकारी अस्पताल में दिखे | कितनी ही घटनाएं रोज अखबारों में पढ़ी …मुझे याद है कि एक ७० - ७२ साल की महिला के साथ कुछ अज्ञात युवकों ने बलात्कार कर पहाड़ी के निचे धकेल दिया था जो नीचे गाँव की ओर जाती हुई पगडण्डी में अटक गयी थी .. इन महिलाओं का सेक्स से कुछ लेना देना भी नहीं था न ही इनकी उमर थी ..फिर भी ये शिकार हुई .. | . आज मेरी तीन पुरानी कवितायेँ ... जो महिला / बच्ची पर कुदृष्टि और बलात्कार से सम्बंधित है .१) आज बच्चियां और महिलाएं कितनी असुरक्षित है समाज में शहद छत्ते से जब गिर कर टपक जाता है शिकारी आतुर आँखें मक्खियों की ढूंढ लेती हैं उसे | शिकंजो में जकड कर खतम होने तक चूस लेती हैं उसे शहद ठीक उसी तरह जैसे मक्खियों से भरे इस समाज में लड़कियां और बच्चे | ..…………….. डॉ नूतन डिमरी गैरोला २) ऐसे पापियों कों चेताती स्त्री ... . मेरी हदों को पार कर मत आना तुम यहाँ मुझमे छिपे हैं शूल और विषदंश भी जहाँ | फूल है तो खुश्बू मिलेगी तोड़ने के ख्वाब न रखना| सीमा का गर उलंघन होगा कांटो की चुभन मिलेगी … सुनिश्चित है मेरी हद मैं नहीं मकरंद मीठा शहद .. हलाहल हूँ मेरा पान न करना | याद रखना मर्यादाओं का उलंघन न करना || . ३) बलात्कार की शिकार महिला का और उसके परिवार का समाज जाने अनजाने उनको इंगित करते हुए अपने से अलग ठहरा देता है और इस आग में बलात्कार की शिकार महिला और उसके परिवार जल उठता है … पीड़ित महिला के आत्मा के चिन्दे चिन्दे हो जाते है .. जब कि वह उसके बाद भी उतनी ही समर्थ और पवित्र है क्योंकि गुनाह उसने नहीं किया इस बात को समाज को भी समझना चाहिए कुछ इसी आशय से यह कविता लिखी गयी थी …. चंद हाथों में मशाल अग्नि, धुआँ जल जाता है आशियाना उसका अपना जल जाते हैं साथी अपने छज्जा अपना | बूंद बूंद निचुड़ निचुड़ कर वह बाजारों में बिक जाता है | आग पानी से युद्ध में खरीद फरोख्त की उठा पटक में रसास्वादन से अपने अंत तक खोता नहीं है अपनी मिठास शहद शहद ही रहता है अपनी मिठास के साथ अपने अंत तक|
आज पूरा समाज एकजुट हो कर उसके साथ है और ऐसी समस्या का जरूर कोई समाधान निकलेगा ... मैं इस इच्छा और उम्मीद के साथ यहाँ पर लिखने पर अल्पविराम लगा रही हूँ कि आने वाला कल न्यायोचित होगा .. अपराधों, हादसों बलात्कार और महिला का शोषण नहीं होगा | महिला पुरुष एक दूसरे के पूरक और साथी होंगे जिसमे कोई कम या ज्यादा न होगा|
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