Tuesday, November 25, 2014

आपका साथ साथ फूलों का में

मेरे प्रिय ब्लॉग मित्रों!!
                          मेरी कुछ कवितायें ब्लॉग आपका साथ साथ फूलों का में पढने को मिलेंगी ...
आप उन्हें इस लिंक पर क्लिक कर पढ़ सकते है ......

 डॉ नूतन गैरोला की कवितायें : आपका साथ साथ फूलों का

स्नेह और आदर के साथ ..मित्रों को शुभकामनाएं 

Thursday, November 13, 2014

छत्तीसगढ़ में नसबंदी केम्प - एक नजरिया


छत्तीसगढ़ में नसबंदी केम्प . एक नजरिया
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 बहुत शर्मनाक ढंग से छत्तीसगढ़ का नाम आज सुर्ख़ियों में है ... यह होना ही था कहीं न कहीं, कभी न कभी ... और यह स्तिथि देश के किसी भी कोने में हो सकती है ... महिलायें कोई गाजर मूली नहीं कि पेट में चाक मारा और औजार अन्दर .. आखिरकार एक ओपरेटिव प्रोसीजर है यह ... जिसके लिए औजारों का प्रॉपर स्टर्लाइजेशन ही नहीं मरीजों का सही चयन भी जरूरी है जो इस तरह के ऑपरेशन को बर्दास्त कर सके और सही परिणाम भी हासिल हों मतलब कि अपने मकसद में सफल ऑपरेशन हों जिसमें नसबंदी हो जाने के साथ साथ महिला का स्वास्थ भी दुरुस्त रहे ... किन्तु बड़े बड़े टार्गेट और वह भी केम्पों में .. भेड़ बकरी की तरह महिलायें लायी जाती हैं ... और बहुदा ओपरेशन थियेटर से बाहर कभी किसी प्राइमरी स्कूल के कमरे में तो कभी कहीं भी उपलब्ध जगहों ने केम्प लगा दिया जाता है ... और बाहर भीड़ अपने नम्बरों की इंतजारी में .... नसबंदी केम्प में मरीजों के ओपरेशन के लिए संख्याएं लिमिटेड की जानी चाहएं ... ताकि चिकित्सक पर कोई अतिरिक्त दबाव न हो ...
                                            केम्प के बाहर का परिदृश्य अलग ही होता है, किसी मज़मा मेला जैसा ... आशाएं (संपर्क कार्यकर्ता ) अपने अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए कभी कभी क्वालिटी बेस मरीज नहीं क्वानटीटी बेस मरीज / महिलायें ले आती है .... मतलब की जो महिलायें फर्टिलिटी के दायरे बाहर है उन्हें भी लाया जाता है क्यूंकि उनके ऊपर अधिक से अधिक केस लाने का भी दबाव होता है कि केम्प लग रहा है तुम लोग लक्ष्यों को पूरा करेंगी ( उनको कभी कभी बात करते सुनते है तो वे कह रही होती हैं कहाँ से लाये सबका तो ओपरेशन हो गया है अब जिनकी शादी अभी हुई है जिनको बच्चे चाहिए उन्हें तो नहीं लाया जा सकता है ) फिर प्रोत्साहन राशि अलग बात है जरूरी नहीं कि इसका प्रलोभन हो ... तब सभी आशाकार्यकर्ता, हेल्थ विसिटर यहाँ तक की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता सब ध्येय की पूर्ती में लग जाते है .. और प्रत्येक केस पर उन्हें एक धनराशी भी दी जाती है ... महिला के केस के लिए जहाँ लगभग १५०रु ? प्रत्येक केस वहीँ पुरुष नसबंदी के लिए ३५०रु ? प्रत्येक केश ... फिर ३ केस एक ही आशा के होने पर उसे अतिरिक्त मान देय होता है और जनसंख्या नियंत्रण पखवाड़ों पर ५ केस पर भी अतिरिक्त राशि मिलती है ...
                                            .हां! पर यह भी सत्य है कि पुरुष नसबंदी के लिए आगे नहीं आते ...जबकि उनका ऑपरेशन सुपरफिसियल स्किन पंक्चर जैसा है और पेट या आँतों के ऊपर से हो कर कोई औजार नहीं गुजरता .. फिर भी सामाजिक मान्यताओं के चलते और कुछ अदद अंधविश्वास के चलते कि पुरुष की पौरुषता चली जायेगी या पुरुष नामर्द हो जाएगा या कमजोर पड़ जाएगा, पुरुष तो पुरुष महिलायें भी अपने पति को ओपरेशन के लिए आगे नहीं करती| घर की माएं भी कहती हैं की अरे हमारा लल्ला / बेटा भारी काम करता है, ओपरेशन तो उसका नहीं कराना हमें .. मतलब औरत रह जाती है ओपरेशन के लिएचाहे वह बीमार हो या कमजोर .. और नहीं करवाएगी तो कितने बच्चों को जन्म देगी या फिर बार बार के गर्भपात ..या फिर दवाइयां खा कर दवाइयों के साइड इफेक्ट को झेलो या कभी दवा खाने में भूल हुई तो विड्रोल ब्लीडिंग का शिकार या फिर अनचाहा गर्भ ......... ऐसे ही इंट्रायूटेराइन कोंट्रासेप्टिव डिवाइस की भी अपनी एक क्षमता है और मरीज का अक्सेपटेंस भी जरूरी है ......... तो वह महिला ही है जिसे हार थक कर ओपरेशन करवाने आना पड़ता है ..... तिस पर गाँवों में महिला रक्ताल्पता का शिकार ( anemia , बच्चेदानी की, ट्यूब की सूजन ( PID, Salpingitis, Fibroid आदि से ग्रस्त भी होती है तो कब ख्याल किया जाता है .. उनका BP सुगर लेवल कैसा है यह भी कौन देख रहा .. घर गाँव के काम से समय निकाल आशा दीदी के साथ चल देती है ऐसे जैसे कोई मेटिनी शो देखने जा रही हों ... इसके लिए उनकी पहले ही जांच हो जानी चाहिए घरों में या ओपरेशन से पहले एक दो माह से अस्पताल में उनका पूरा चेकअप ... किन्तु आज कल नीतियों ने इसे इतना सरल दिखाया है कि लगता है मानो सच में यह ओपरेशन न हुआ कोई इंजेक्शन लगाना हुआ|
                                      यह एक बहुत दुखद स्तिथि है कि सरकार जिस चिकित्सक को उसके त्वरित सेवा के लिए सम्मानित करती है अगले ही साल उसके सधे तेज हाथों से इतने सारी महिलायें कालकल्पित हुई ... अगर एक चिकित्सक की तरह सोचूं और  गहरे इन तथ्यों को खंगालूं  .... तो  यही साफ़ दृष्टिगत होता है कि किसी भी औजार को पूरी तरह से स्टरिलाइज होने में कम से कम आधा घंटा लगता है और यहाँ दो ओपरेशन के बीच आधा घंटे का स्पेस देना मतलब एक बहुत बड़ी मुसीबत को बुलावा देना होगा ... अक्सर यह देखा गया है कि किसी के ओपरेशन में देर हो रही हो या किसी को मना किया जा रहा हो तो केम्प में हंगामा खडा हो जाता है ... चिकित्सक के ऊपर शासन का ही दबाव नहीं होता बल्कि महिला के परिवार के साथ उन्हें वहां तक लाने वालों का भी बहुत बड़ा दबाव होता है|  जहाँ तक लगता है यह किसी तरह का संक्रमण था जो शल्य के बाद महिलाओं में फैला| एक दिन में अगर कई ओपरेशन रखे जाएँ तो यह हश्र जो हुआ उसकी संभावना बनी रहती है|  और जो हुआ वह बहुत ही दुखद और हृदयविदारक है कि महिलाएं किन किन सपनों के साथ आयीं थी होंगी वे और अपना घर परिवार सब छोड़ चल दी|

 जहाँ तक मेरा मानना है  

· बंधीकरण इतिहास में वास्तव में पशुवों का किया जाता था, स्थायी तरीकों के अलावा भी हमारे पास अन्य बेहतर तरीकें हैं जिनकी जानकारी लाभार्थी को होनी चाहिए पर अगर आज के आधुनिक युग में जबकि साधन उपब्ध है, जानकारी उपलब्ध है अच्छे एंटीबायोटिक हैं ओपरेशन के लिए दूरबीन है तब भी तमाम ऐहतियात के साथ ही बंधीकरण/नसबंदी किया जाना चाहिए|

 · शासन की ओर से कार्यकर्ताओं पर कोई भी दबाव नहीं होना चाहिए| टारगेट जैसी संख्याएं नहीं होनी चाहिए| शिविर में लिमिटेड संख्या को ही एक दिन के लिए रजिस्टर करना चाहिए ताकि औजारों को ईस्टरलाइज करने का समय मिले|

· बड़ी संख्या में लाभार्थियों के आने से केम्प में अफरा तफरी सी बनी रहती है| यह बहुत ज्यादा लोगो का आना सबसे ज्यादा गड़बड़ी को फैलाता है|

 · चूँकि परिवार नियोजन केम्प में काफी तादाद में ओपरेशन होते है अतः वहां लेप्रोस्कोप और अन्य टाँके लगाने और ओपरेशन के औजार कई होने चाहिए ताकि जब शल्य क्रिया हो रही हो उस वक्त कुछ अन्य औजार और लेप्रोस्कोप स्टेरीलाईजेशन में संक्रमण विहीन हो रहें हों जो कि दुसरे तीसरे केस के लिए प्रयोग करने के लायक सही हों||

· इसके लिए प्रोत्साहन राशि अलग से न हो| महिलाओं और पुरुष को प्रोत्साहन राशि मिल जाने की ख़ुशी के लिए नहीं बल्कि स्वस्थ परिवार स्वस्थ समाज, और छोटा परिवार सुखी परिवार जैसी उनकी निजी और सामाजिक उपलब्धता के लिए उन्हें प्रोत्साहित किया जाना चाहिए|

 · मुझे लगता है कि हर अस्पताल में एक अलग यूनिट होनी चाहिए जो नसबंदी के लिए आने वाले लाभार्थी को पूरी साफ़ सफाई और समय के साथ हर रोज नसबंदी के लिए आने वालों को यह सुविधा दें|

 · अगर केम्प हो तो लाभार्थी महिला पुरुष का स्वास्थ परिक्षण और परिवार नियोजन सम्बंधित काउंसलिंग नियोजित तरीके से पहले ही होनी चाहिए|

----------------------  इसके लिए चिकित्सकों को इधर से उधर पटका जाए या उनको गुनाहगार ठहराने की बजाये शासन परिवार नियोजन शिविर  के लिए सही नीतियों का निर्धारण करें... संख्याओं पर ही आधारित नहीं बल्कि गुणवत्ता पर ज्यादा ध्यान दें|

Wednesday, September 3, 2014

ससुराल जाती ध्याण और नंदादेवी राजजात



ससुराल जाती ध्याण और नंदादेवी राजजात यात्रा

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बेटी ... को जब ध्याण कह कर पुकारते है तो कितना, स्नेह, लगाव, सम्मान दिल में उमड़ पड़ता है कि आंसू छलछला आते हैं आँखों में ...बेटी अपनी आत्मीय, अपनी आत्मा का टुकड़ा जो रीतिरिवाजों से जुड़ी, सामाजिक दायित्व में बंधी अपने घर अपने बचपन से दूर पहाड़ की कठिन दिनचर्या में ससुराल में कैसे दिन बिताती है कि मायके के लोग उसकी विदाई में रो पड़ते हैं ..ध्याण मतलब विवाहित बेटी ... ब्याह कर दुसरे मुल्क गयी बेटी ... माँ पिता भाई बहन और गाँव वालों की ध्याण ... स्नेह का प्रतीक ... सब जानते है वह ससुराल में कितनी ही पहाड़ जैसी जिम्मेदारियों के बीच खुद का ख्याल नहीं रख पाती होगी ... जब आती है वह मायके तो उसे आराम और सबका स्नेह मिलता है ..गाँव वाले भी आदर सत्कार करते है .. भोजन पे बुलाते है अपने घरो में ... भेंट समोण देते है ... ससुराल जाती है तो जो भी हो सकता है, बेटी को देते है पकवान बनाते है उसके लिए... उसके ससुराल एक डाल्ली ( रिंगाल की टोकरी )जाती है जिसमे गुड़ से बने स्वादिष्ट रौठ, आरसे होते है | पहले सारा गाँव उसकी विदाई में रो पड़ता था और जहाँ जहाँ जहाँ से ध्याण गुजरती थी रास्ते के लोग रो पड़ते थे .... ध्याण भी तो पूरी आवाज के साथ विलाप करते थकती नहीं बल्कि बीच बीच में उसे रोते रोते चक्कर भी आते थे ..पूरी वादी में उसकी रोने की आवाज गूंजती थी लोग रोते हुए उसे आश्वासन देते थे जा बुबा नी रो ..फिर बुलायेंगे तुझे तू फिर आएगी .... कितना कठिन था उस वक्त पहाड़ का जीवन बर्फीले पहाड़ों में आग पानी की व्यवस्था करती ससुराल में बेटी लकड़ी काटती, जंगल जाती, गाय भेंस की देखभाल, खेतो का काम, घर का काम, सबकी देखभाल करती हुई और खुद को भूली जाती थी ..बस तभी तो पहाड़ के गीतों में बेटी का अपने घर माँ पिता और गाँव को याद करने का दर्द बसा है, हालांकि आज विकास के दौर में बिजली, रसोई गेस, मोटर व् सड़कें, मॊबाइल आदि ने इन कठिनाइयों और दूरियों को कम किया है .... पहाड़ में नंदा देवी जो ध्याण है पहाड़ की, हर बारह साल में आज भी उस बेटी का मायके आना और उसके साथ दूर तक उसे ससुराल भेजने जाना, और बरबस ही सबका बेटी बहन नंदा को विदा करते हुए रो पड़ना ... बेटी के लिए प्रेम का प्रतीक और बेटी से की प्रतिज्ञा का निर्वहन है, नंदादेवी राजजात पहाड़ की परम्परा है, रिश्तों में आस्था का द्योतक है ... आज जहां समाज में महिला का जीवन कोख से ले कर कफ़न तक असुरक्षित लग रहा है वहां रिश्तों में आस्था, स्नेह और सम्मान की यह यात्रा निसंदेह समाज को एक महिला के प्रति सकारात्मक सोच का सन्देश देगी| ................ यही नहीं इस यात्रा के मार्ग पर गाँव के लोग आज भी अथिति देवो भवः की तर्ज पर यात्रियों की सेवा करते दिखते है.. ३० अगस्त को बस्ती को छोड़ आखिरी गाँव वाण जो कि आखिरी ग्रामीण पड़ाव है वहां से यात्रा सूदूर दुर्गम चढ़ाइयों में निर्जन पहाड़ियों से गुजरते हुए कल कठिनतम मार्ग ज्यूँरा गली को पार कर गयी ... आज होमकुंड में पूजा अर्चना कर नंदा को इस यात्रा की अंतिम विदाई दे कर श्रद्धालु और यात्रीगण वापसी की ओर कूच कर जायेंगे ...| यात्रा की सफलता और यात्रियों के खुशहाली के लिए जागर की ये पंक्तियाँ



सुफल ह्वेजाया नंदा तुमारी

जातरा तुमारा नौ कू आज कारजे उरायो.....

धन्य उत्तराखंड म्यरो

धन्य गढ कुमाऊं देश

धन्य देव भूमि म्येरी

धन्य मातृ भूमि म्येरी

धन्य धन्य होया आज सो नन्दा घुंघुटी ............... डॉ नूतन डिमरी गैरोला

Thursday, August 21, 2014

वह तोड़ती नहीं पत्थर वह पत्थर की तरह तोड़ दी जाती है

वह तोड़ती नहीं पत्थर वह पत्थर की तरह तोड़ दी जाती है =======================================
 हम कभी अपनी चाहना से आजाद होंगे
 हम सदा कुछ न कुछ चाहते रहेंगे
कि करते रहें हम कोई न कोई काज
भूख रोटी अलग बात
कि हम चाहते हैं कि हम समाज के लिए दे सकें अपने बूते का योगदान
 कम से कम अपनी काबलियत भर का तो चाहते हैं
 क्यूंकि हम में से हर कोई पूरी तरह नलायक नहीं होता है
कि सब में कुछ न कुछ लायक बना बचा होता है
फिर उस पैमाइश में हमें क्यूँ नहीं मिलता ठिकाना
जिसकी काबिलयत का हमें भरोसा होता है
क्यों हम में से कुछों के भाग्य में
 दर दर की ठोकर खाना
 ठोकर पर उनका होना पाना लिखा होता है ......
जानते हो
कुछ लोग शैतानीतंत्र के निशाने पे बींध लिए जाते है
तब अजगर साजिशों का मुंह फाड़ कर उन्हें निगलता ऐंठने लगता है.......
भला एक स्त्री का एक स्त्री से कितना अलग होगा अभिव्यक्त करना  दर्द अपना
मसलन वह तोडती पत्थर ध्याड़ी पर
और वह जो ऊँची शिक्षा के साथ भी
अपने कार्य में दक्ष होने के बाद भी
बेरोजगारी से त्रस्त
शासन के अधीन एक कच्ची नौकरी करती है ...................
क्या फरक
उसकी तठस्थ मेहनत का
ईमानदारी कर्मठता और विद्वता का
दिन रात जिसकी योग्यता का सिर्फ और सिर्फ होता है शोषण ...........
हाँ और एक बात देखी है
किसी टीम के औचक निरिक्षण पर होता है जो उपलब्ध
अपनी कुर्सी पर कार्यालयों में अनुशासित समयबद्ध
प्रश्नों के कटघरे में उसे ही पहुंचा दिया जाता है
क्यूंकि प्रश्न नामौजूद लोगों से नहीं पूछे जाते
अक्सर नमौजूद लोगों के बारे में पूछा भी जाता नहीं
उत्तर के लिए सवालों का ठींकरा उपस्थित के सर फोड़ दिया जाता है ....
सर्वेक्षण टीम का कार्य पूरा हो जाता है..
उसे दिखाना भी यही होता है
सो अखबारों में दे दी जाती है खबरे
यहाँ का सर्वेक्षण हुआ हुआ वहां का सर्वेक्षण ....
सरकार ने कितने हज़ार गाँवों को फलां माल जरूरत से ऊपर पहुंचाया
 ताकि कुछ वक्त लोगों का गुजारा चल सके
और साथ में एक कार्टून को टेग करके लिख दिया जाता है ...
पर महकमे के फलां आदमी को यह भी ज्ञात न था
( जबकि सच वही आदमी जानता है जिसे बलि का बकरा बनाया जा रहा है) ....
कि सरकार पूरे दावे से जिस कार्य के हो जाने का भरोसा राष्ट्र को दे रही है
 उसी महकमे के एक बन्दे को इस कार्य का रत्ती भर भी ज्ञान नहीं
और औचक निरिक्षण के दौरान उसे पकड़ा गया .....
सपष्टीकरण मांगे जाते है, बेवजह हो हल्ला होता है
मोबाइलों पर सवाल, और कई टीमों का पुनः पुनः आवागमन
की जैसे अपने कर्तव्यों पर तल्लीन हो कर कार्य करने का कोई संगीन जुर्म हो गया हो
दफ्तर में काम करती उस औरत  से  अपने स्थान को नहीं छोडती समय से पहले
वह स्त्री जो अपने महकमे की उन्नति के लिए करती है काम
एकांत में रोती है और मानसिक अवसादों का शिकार होती है|
आदत अनुसार फिर अगली सुबह दिखती है वह
मुस्कुराते हुए अपने काम में झुकी अपनी कुर्सी पर ..........

.......... और कुछ दिन बाद
 एक विज्ञापन अखबार में छपता है
 सुरक्षित नौकरी वाले को फलानी जगह वह नौकरी दे दी गयी है........
ध्याड़ी पर काम करती एक पढी लिखी पर साधारण कर्मठ औरत
जिसने लड़ना नहीं सीखा को
गुमनामी के अंधेरों में धकेलने
और उसकी प्रतिभा और इमानदारी को अपमानित  कर
नौकरी से निकालने में एक मिनट का समय नहीं गंवाती सरकार ...... .......
उधर शासन दावा करता है पढ़े लिखे दक्ष कार्यकौशल कर्मचारियों की कमी है .... चले आओ ..
साक्षात्कार ले रही है .... क्या फिर से एक नए शिकार को? ...
और उधर दफ्तर के समय मियाँ मनसुख लाल
घर में बिस्तर में जमाही लेता फोन लगाते हुए सोच रहा है
 ( राजा बाबू फोन उठाता नहीं
 मालूम नहीं रोज की भाँती आज वह किस टॉकीज में होगा
किस रेस्तरां में होगा)
 कि तभी फोन उठा दिया गया है
 भरभराई आवाज में पूछता है काम कैसा चल रहा है दफ्तर में .. सब ठीक ..
एक घंटे से दफ्तर के बाहर बैठ कर ताश की नयी बाजी लगाता हुआ
झम्पट बाबू पान की पीक थूकते हुए कहता है
 जी साहब! सब ठीक चल रहा है
 आप आराम करें ........
और पत्ते फेंटने लगता है

Monday, June 30, 2014

अनुनाद में मेरी दो कवितायें …



   प्रिय मित्रों - मुझे बताते हुए बहुत खुशी हो रही है कि अनुनाद ब्लॉग में मेरी दो कवितायें प्रकशित हुई है… आशा है कि आपको भी ये कवितायेँ पसंद आएँगी … .. जरूर देखिएगा और अपनी राय दीजियेगा वहाँ …



 अनुनाद में डॉ नूतन गैरोला की दो कवितायें


Monday, March 10, 2014

अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस की चमक और नारी निकेतन का अन्धकार



                         सूफी से गोल गोल घूमते हुए नाचते हुए भक्त, किसी दूर से आती हुई ढोलक की थाप पर , भक्तिमय इस माहोल पर दिल बाग़ बाग़ हुए जा रहा था कि जाए हम भी जा कर वहां बैठ जाए .... कुछ हम भी भक्तिमय हो जाए ... पर मुझे तो अपना कार्य देखना होता है ... मुझे मरीज देखने थे वहां .. जी हां .. नारी निकेतन मैं थी मैं उस वक्त और वह नाचती हुई महिलायें नारी निकेतन की ... मैं एक मेज पर बैठी थी हिदायते चारो ओर थी तस्वीर खींचने की मनाही .. प्रवेश द्वार पर भी एक हिदायत कि बिना मजिस्ट्रेट की आज्ञा के प्रवेश वर्जित ............. खैर, हमें तो तकलीफों ( शारीरिक ) से बाबस्ता होना था .... सूनी आँखें कहती थी कि ये तकलीफें बहुत कुछ अपनों की चाहत में बड गयी ... फिर चीखने की आवाजे .. बार बार चिल्लाती औरते, लड़ती औरते, रोने की आवाजें और वो भक्तों की तरह झूमती औरतें ... वह भक्तिमय नहीं था जो दूर से नज़र आता था, वह घोर मानसिक अवसाद और वितृष्णा थी ................................... एक तरफ अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर बहसों की चकाचौंध ............................ दूसरी ओर अपने गम के अंधेरों में खोयी हुई ये महिलायें, शारीरिक मानसिक कष्टों में भोजन और जीवन के लिए लड़ती स्त्रियाँ ... जिनकी इरले बिरले ही कोई सुनवाई हो ....... समाज में इनके लिए कहाँ जगह थी कोई स्वीकारोक्ति ही नहीं थी जब इनके घर वाले भी इनको दर दर भटकने के लिए छोड़ गए ... ऐसे में मुझे वह पगली सी सड़क की लड़की ( २५ साल उम्र लगभग ) बहुत याद आई .... जो हरिद्वार से रात २ बजे लाइ गयी थी ...... प्रसव पीड़ा थी पर और दो बार उसका सीजेरियन ओपरेशन हो चुका था ... वह चिल्ला रही थी, क्रोध में भाग रही थी ..अपने पर हाथ नहीं छूने दे रही थी ... गंजी थी वह और पूरे कपडे लहुलुहान ..... उसे मालूम भी नहीं था कि ये लोग उसके हितेषी है .... सोचती हूँ इस वहशी समाज में वह रात रात को कैसे सड़क में जीती थी होगी ... कितने ही बलात का वह शिकार हुई होगी ... उसका बच्चा और वह अब किसी ऐसी ही जगह सहारा पाए होंगे ... वह ४ साल की लड़की भी याद आई जिसको बलात्कारियों ने सड़क पर छोड़ दिया था और वह माँ पिता की तलाश में देहरादून लायी गयी थी .... पर वह शायद कुछ भी सही नहीं बता पा रही थी और अनाथ हो चुकी थी ...

पर जिस एक बात की मुझे ख़ुशी हुई वह थी कि कुछ लडकियां वहां से स्कूल पढने जाती है .................. लेकिन वे घर आ कर कैसे पढ़ती होंगी .... जहाँ बार बार चीखते लोग ....... चीजें पटकते आपस में लड़ते या रोते हुए लोग है ... 

         मेरा व्यक्तिगत सोचना है कि हम ऐसी महिलाओं के लिए संस्थागत  मनोवैज्ञानिक  इलाज, काउंसलिंग करें, घर वालों को उनसे मिलने के लिए उत्साहित करें और उनको मिलवायें, इसके अलावा उनको आउटिंग करवाएं ताकि उनका भी एक बड़ा आसमान हो ..... उनकी ऊर्जा को किसी सकारात्मक कार्यों में लगवाएं ताकि वह भी समाज के लिए योगदान दे कर अपने होने को सार्थक समझ सकें .... साथ ही हमें दिवाली या शादी ब्याह या जन्मदिन और उत्सवों के खर्चों में से फिजूलखर्ची को बचा कर मिलजुल कर ऐसे लोगो के लिए मिलजुल कुछ  नेक कार्य करना चाहिए ......
( सेंसर कर के लिखा गया )

                                       

Tuesday, February 4, 2014

उसके साथ मुस्कुराता है बसंत



उसने देखी थी
तस्वीर
अपनी ही सखी की
जिसमे स्त्री हो जाती है जंगली
जिसके तन पर उग आती है पत्तियाँ
बलखाती बेलें अनावृत सी
कुछ टीले टापू और ढलानें
और
जंगल के बीच अलमस्त बैठी वह स्त्री  
सारा जंगल समेटे हुए
प्रशंसक हैं कि टकटकी बाँध घेरे हुए तस्वीर को  
और चितेरे अपने मन के रंग भरते हुए ..........

तब धिक्कारती है वह अपने भीतर की स्त्री को
कि जिसने
देह के सजीले पुष्प और महक को
छुपा कर रखा बरसों 
किसी तहखाने में जन्मों से
कितने ही मौसमों तक 
और तंग आ चुकती है वह तब 
दुनिया भर के आवरण और लाग लपेटों से.................

वह कुत्ते की दुम को सीधा करना चाहती है
ठीक वैसे ही जैसे वह चाहती है जंगली हो जाना
लेकिन उसके भीतर का जंगल जिधर खुलता है
उधर बहती है एक नदी संस्कारों की
जिसके पानी के ऊपर हरहरा रहा है बेमौसमी जंगल  
और वह देखती है एक मछली में खुद को 
जो तैर रही है पानी में.....................  
वह कुढती है खुद से
वह उठाती है कलम
और कागज में खींचना चाहती है एक जंगल बेतरतीब
पर शब्द हैं उसके कि जंगली हो नहीं पाते
ईमानदारी से जानने लगी है वह 
जंगली होना कितना कठिन है  
असंभव ही नहीं उसके लिए नामुमकिन है
वह छटपटाती है 
हाथ पैर मारती है 
वह मन के विषम जंगल से बाहर निकल पड़ती है ......
....................................................................................
और जिधर से गुजरती है वह
उसके मन के जंगल से गिर जाता है 
सहज हरा धरती पर 
प्रकृति खिल उठती है   
हरियाली लहलहाने लगती है 
प्युली खिल उठती है पहाड़ों में
कोयल गीत गाती है 
और बसंत मुस्कुराता है ................................ ~nutan~

***********************************************
बसंतपंचमी पर शुभकामनाएं 

Wednesday, January 15, 2014

बर्फ के खिलाफ जारी है उसका विद्रोह

वो
सामने एक बर्फ का ढेला
औंधी पडी कुल्फी सा  
प्लेट पर ...
कि जिसको चाहा था राजिया ने 
बेसब्री से
और
कि कुछ गर्मी तो हो 
उसके लिए ....
कि छू सके 
सहला सके
प्रेम से हाथों में उठा तो सके  ...
छूने की इस तमाम ख्वाहिश में
ठोस ढेला खो गया
पानी पानी हो गया .............
और हादसे के बाद
जब भी पानी को देखती है राजिया 
तमाम उष्माओं को खो कर
प्रेम में
बर्फ हो जाना चाहती है
ढेले को छूना चाहती है
पोरों पर
और हाथों में हाथ रख कर
हथेलियों की जुम्बिश में खो देना चाहती है

चेतना को  ...........
-------------------------------
पर इसके पलटवार
शहर की गलियों में
राजिया को चुस्की खाते देखा है
लोगों ने
लाल लाल होंठों पर
शायद राजिया दर्ज करती है  विद्रोह 
बर्फ के खिलाफ

गर्मी के खिलाफ ....................

Saturday, January 4, 2014

सीमित परवाज की अबाबील नहीं हो तुम - तुम्हें उड़ना है दूर तक



 

      DSC00930
 

हाहाहा
प्यार भी किस चिड़िया का नाम है

है ना ..

औचक सी रह जाती हूँ मैं
कंधे पर फुदक कर बैठ जाती है जब
किसी जंगल की खुशबू का आभास लिए
पर्वतों पर आ जाती है वह
चहकती हुई लुभाती हुई
..........

ओ अबाबील तुम प्रवासी हो
पहाड़ का सम्मोहन तुम्हें खींच लाता है इधर
पर
तुम नहीं जानती कि कब बदल जायेंगे ये मौसम
और तुम्हें जाना होगा वापस .....


पहाड़ पर बहते हुए तुम्हारे प्रेम राग
और कन्धों पर तुम्हारे पंखों की फडफडाहट
गुदगुदा जाते है बहुत ..........

.
और देखों उन हाथों में
दोना है अनाज  का
वो तुम्हें चुगाएगी नहीं
बेशक तुम बहुत अच्छी हो अबाबिल ......


फिर भी ध्यान रखना
वो अभिशापित है निष्ठुरता के लिए
तुम पर जारी निष्ठुरता के लिए प्रतिबद्ध है

इसलिए वो खुद के प्रति अन्यायी हो जाती है

और हो जाती है  खुद से निष्ठुर .......
फिर भी
अगर तुम्हें भूखा न वो देख पाए

और स्नेह से बिखरा दे दानें
पर तुम न चुगना दानो को

न उनके फेर में पड़ जाना ........
ये पहाड़ है हिमालय के


जहाँ पाषाण बहुतेरे और हरियाली है कम 

और जाने कब बदल जाए मौसम
आ जाए कोई बर्फीला तूफ़ान
और नन्ही अबाबील हो जाए लुप्त ...
इससे पहले ही तुम
उसके कंधे से उतर जाओ
जाओ परवाज लगाओ .......
पहाड़ से दूर बहुत दूर
क्यूंकि वो भी चाहती है तुम्हारी दीर्घ खुशी
और तुम्हारी उन्मुक्त लंबी उड़ान .......

ये जायज है कि तुम्हारा लक्ष्य
एक कंधे के लिए संकीर्ण हो नहीं सकता

तुम्हें फैलाने होंगे वृहद समाज के लिए अपने पांखें

दूर तक उड़ना होगा  

और सुनाना होगा सबको मधुर राग .….. नूतन





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