वो सामने एक बर्फ का ढेला औंधी पडी कुल्फी सा प्लेट पर ... कि जिसको चाहा था राजिया ने बेसब्री से और कि कुछ गर्मी तो हो उसके लिए .... कि छू सके सहला सके प्रेम से हाथों में उठा तो सके ... छूने की इस तमाम ख्वाहिश में ठोस ढेला खो गया पानी पानी हो गया ............. और हादसे के बाद जब भी पानी को देखती है राजिया तमाम उष्माओं को खो कर प्रेम में बर्फ हो जाना चाहती है ढेले को छूना चाहती है पोरों पर और हाथों में हाथ रख कर हथेलियों की जुम्बिश में खो देना चाहती है चेतना को ........... ------------------------------- पर इसके पलटवार शहर की गलियों में राजिया को चुस्की खाते देखा है लोगों ने लाल लाल होंठों पर शायद राजिया दर्ज करती है विद्रोह बर्फ के खिलाफ गर्मी के खिलाफ .................... |
जीती रही जन्म जन्म, पुनश्च- मरती रही, मर मर जीती रही पुनः, चलता रहा सृष्टिक्रम, अंतविहीन पुनरावृत्ति क्रमशः ~~~और यही मेरी कहानी Nutan
Wednesday, January 15, 2014
बर्फ के खिलाफ जारी है उसका विद्रोह
Saturday, January 4, 2014
सीमित परवाज की अबाबील नहीं हो तुम - तुम्हें उड़ना है दूर तक
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