Thursday, November 24, 2011

इज्जत की गठरी–डॉ. नूतन गैरोला


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                             हम सभी  इंसान, सनद रहे मैं यहाँ सिर्फ खालिस  इंसानों की बात कर रही हूँ इंसान के रूप में जो जानवर हो, यह पोस्ट उनके लिए कदाचित नहीं, तो सभी इंसान जीवन की दौड में किसी अनजान मंजिल की ओर भाग रहे हैं| एक मंजिल मिलती है तो दुसरी फिर उठ खड़ी होती है, फिर दौड जारी और यूं जीवन पर्यन्त हम दौड़ते रहते है बिना रुके| कभी मंजिल नहीं मिली इसका गम तो कभी मंजिल मिल गयी, अब जिंदगी का मकसद क्या है, इसका गम  .. लेकिन फिर भी एक नयी  मंजिल मिल जाती है… और भागते धावक की तरह या कछुवे की मानिंद हम मंजिल की ओर बढ़ जाते हैं पर इंसान कहीं भी अकेले नहीं होते  .. होती है उसके साथ उसके सर पर रखी इज्जत की पोटली या गठरी  ..जिसे आजन्म वह सर से उतार नहीं सकता..कोई गठरी की ओर ऊँगली उठा कर तो दिखाए वह मार देगा या मर जाएगा क्यूंकि उसने तो इज्जत पर मरना और मारना ही सीखा है .. संस्कार जो मिले उसे बचपन से वह यही है कि इज्जत के साथ जियो .. तो कोई इज्जत की पोटली ले कर चलता है तो कोई गठरी| जैसी औकात वैसी गठरी का आकार .. बहुत इज्जत वालों की गठरी बहुत बड़ी होती है ..पर उसकी मजबूरी यह कि वह गठरी नहीं उतार सकता| वह उसके नीचे पिसता चला जाता है ..पर सेल्फ इन्फ्लेसन/ मिथ्या दंभ  भी तो कुछ चीज है .इस गठरी की शान बनाये रखने के लिए वो आम जगह पर खुल कर मुस्कुरा भी नहीं सकता और दो शब्द नपे तुले ही बोल पाता है ..वह अपने मन की बात भी किसी से साझा नहीं कर पाता कि कहीं इज्जत की गठरी हलकी ना हो जाये और वह हल्का आदमी कहलाये  .. और जिसके सर पर  छोटी पोटली भी है तो वह भी सर पर ही रहेगी और प्रयास रहेगा कि पोटली का आकार बड़ता जाए .. मतलब कि गठरी और बड़ी और बड़ी बड़ी गठरी बन जाए …चाहे वह इस गठरी के नीचे थक कर चूर हो जाते हों, पसीना पसीना हो जाते हों, हांफ रहे हों पर उसको सर पर यूं थामे हैं की ज्यूं यही उनका सर हो यही शान हो|


                             सोचती हूँ कि आखिर इस गठरी में क्या होता होगा जो आदमी को जान से भी ज्यादा प्यारा है .. कभी सोचती हूँ कि अगर इस गठरी को खोलें तो क्या इस से मिलेगा अच्छे गुणों का बक्सा, धन की तिजोरी, कुछ साहित्य की किताबें, कुछ हुनर की चादरें, कुछ सामाजिक कार्यों का  लेखाजोखा, कुछ धार्मिक ग्रन्थ, या कर्म के औजार, संस्कारों का ब्यौरा, जातियों का और पीढ़ियों का ब्यौरा, कोई आईना लज्जा का जो कि बहुत जल्दी टूट सकता है -संभल के भाई, कोई तहजीब अदब का चिराग, तारीफों के पुलिन्दे, पीढ़ियों से एकत्र किये  तमगे मेडल, जाने क्या क्या होता होगा इसके अंदर |   गठरी तो अदृश्य  है सो आज तक खोल कर कोई भी  झाँक नहीं पाया और अगर दिखती भी है तो  सर से नीचे ताका झांकी के लिए उतारे  तो कैसे - गठरी तो  सर पर बनी रहनी चाहिए |


                                इस गठरी की आड़ में राजा रजवाडों से कितने ही षड्यंत्र अंजाम तक पहुंचे .. लोगो ने कितनी ही चोटें खायी पर चुप रहे| उन्हें  इज्जत की गठरी का हवाला दिया गया और वो लोग मर गए पर इस इज्जत की गठरी को सर से नहीं उतारा| इस की खातिर लोगों ने किसी को मार दिया, किसी को मरवा दिया या खुद मर गए, क्या आप लोग क्राइम पेट्रोल  देखतें हैं?  इस गठरी को बनाये रखने के लिए लोगो ने अपने पर होते जुल्मों को सहा और अपराधियों को बढावा दिया, अपने मौन को कायम रख इस डर से कि कहीं उनकी इज्जत की गठरी ना उतर जाए … और महिलाओं के तो सर पर उनके वजन के हिसाब से गठरी का बोझा जरा ज्यादा होता है.. बेचारी मारी जाती हैं .. घरेलू हिंसा हो, छेड़ छाड हो, बलात्कार हो या विवाहपूर्व या पश्चात प्रेम सम्बन्ध हो, या रोजगार के लिए गलत राह पर भटके बेरोजगार,  इज्जत की गठरी का ख्याल आते ही कोई इसकी शिकायत नहीं करता, हिंसा का शिकार होते रहते हैं, बलात्कार होते रहते हैं, छेड़ छाड चलती रहती है और  ये जुर्म चुपचाप सहे जाते हैं  ..घर के बुजुर्ग भी सलाह देते रहते हैं कि पुलिस में रपट ना करवाना, घर की इज्जत चली जायेगी  .. जिंदगी में किसी से कोई गलती हो जाए तो वह प्रायश्चित नहीं कर पाता क्यूंकि उसे उस गठरी का हवाला दिया जाता है कि तेरी गठरी उतार ली जायेगी और उसे बाधित किया जाता है गलत कार्यों की पुनरावृति उसकी मजबूरी हो जाती है वह एक कमजोर शिकार हो जाता है और  अपराध के हाथों उसका शोषण होता है .. तन मन धन उसको गलत राह पर लगाना पड़ता है सिर्फ इज्जत की गठरी को बचाए रखने के लिए | आज कल प्रेमी युगल को मौत के घाट उतार लिया जाता है उस नैसर्गिक भावना के लिए जो सृष्टि के सृजन की मूलभूत शुरुआत थी .. जो जान बूझ कर नहीं आती ..कहते है- जो खुद हो जाती है -- इस इज्जत की गठरी को बचाने के लिए “ओनर किलिंग” के नाम पर मासूमों को, जो सिर्फ  प्यार जानते है, को  बड़ी बेहरमी से मार मार कर उनकी हत्या कर दी जाती है और दुःख की बात ये कि रिश्तेदारों के सर की गठरी बड़ी हो जाती है| इस तरह इस गठरी की आड़ में कितने खून बहे, कितनों की सिसकियाँ दबी रही - और आगे भी इस गठरी ने कितनों को लीलना है मालूम नहीं|


                           किन्तु मैं यही चाहूंगी की हम इस झूठे शान की गठरी को सर से फैंक दें - हम अपने पर होते जुल्म के खिलाफ आवाज उठा सकें| क्यूंकि इज्जत तो गलत रास्तों पर चल कर भी कमा ली जाती है और पैसे के साथ इज्जत भी आ जाती है जैसे कुछ सफेदपोश बदमाश होते हैं  जब तक पकडें नहीं गए इज्जतदार होते हैं| क्या हम एक बहुत अच्छा इंसान और  मानव धर्म प्रेमी नहीं बन सकते .. हम इस मिथ्या की गठरी को तरजीह ना दें कर भला इंसान बनें तो कितना भला हो | यह एक इज्जतदार आदमी है या यह एक बहुत नेक इंसान है कोई कहें तो मैं एक बहुत नेक भला इंसान होना चाहूंगी और वह भी अपनी नजर में, अपनी आत्मा की नजर में |  मैं एक मिथ्या दंभ में नहीं फँसना चाहूंगी |
आप क्या चाहेंगे ..आपके क्या विचार हैं ?




डॉ नूतन गैरोला – २४ / ११ / २०११ १८: ०३
 

23 comments:

  1. किन्तु मैं यही चाहूंगी की हम इस झूठे शान की गठरी को सर से फैंक दें - हम अपने पर होते जुल्म के खिलाफ आवाज उठा सकें|

    एकदम सही विचार .....लेकिन हम कहन उस गठरी से अपने को मुक्त कर पाते हैं ....

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  2. जितना बोझ उठाये घूमेंगे, उतना शीघ्र थक जायेंगे।

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  3. हम तो आपके विचार पढकर ही मग्न हैं जी.
    आपके लिखे बहाव में ऐसे बह गए जैसे
    उफनती नदिया बहा ले जाये.
    आपका रोचक अंदाज बहुत नूतन लगा जी.
    अब सोच रहा हूँ अपनी इज्जत की
    गठरी को इस नदी में ही बहा दूं.
    आपको कोई आपत्ति तो नही जी ?

    माफ़ी चाहता हूँ आपके स्नेहिल आग्रह के
    बाबजूद नई पोस्ट नही लिख पाया हूँ.परन्तु,
    मैं अति शीघ्र ही लिखने की कोशिश करूँगा.

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  4. विचारणीय पोस्‍ट।
    हम यदि नेक इंसान बन जाएं तो जीवन सफल हो जाए.... यही कोशिश करनी चाहिए....

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  5. झूठी शान कुछ नहीं देगी...यह हमें जानना होगा.

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  6. आलेख की भावना से पूर्ण्तः सहमत हूँ। इस झूठे "ऑनर" के नाम पर बहुत कुछ होता रहा है और आज भी हो रहा है। चेतना और जागृति की बहुत ज़रूरत है।

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  7. काफी हद तक सही है आपकी बात (फ़िलहाल तो अपने को इंसान समझ कर ही पोस्ट पढ़ रहा हूँ :-).........इज्ज़त कह लो या समाज का दर जो हमेशा साथ बना रहता है......हमे इसकी परवाह कम होती है की हम क्या चाहते हैं इसकी ज्यादा की लोग क्या कहेंगे - एक शेर अर्ज़ है ....

    ' एक दफा हिम्मत जूता और मन की करगुज़र ,
    चंद दिन चर्चे रहेंगे और क्या हो जाएगा'

    वक़्त मिले तो मेरे ब्लॉग की एक पोस्ट.....मैं मेरा दिल और मंजिल ज़रूर पढ़ें.....इससे मिलते कुछ जज़्बात वहां पाएंगी आप......

    http://jazbaattheemotions.blogspot.com/2011/10/blog-post_31.html

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  8. इज्जत की गठरी को पूरी तरह खोल दिया है . झूठी इज्जत को नंगा का दिया है आपने .

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  9. बढ़िया आलेख .

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  10. प्रभावी चिंतन... सार्थक निष्कर्ष...
    सादर...

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  11. नेक इंसान बने ... झूठे दंभ न भरें ..अच्छा लेख

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  12. डॉ.नूतन जी,
    मेरे ब्लॉग पर आईयेगा.
    नई पोस्ट जारी की है.

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  13. हम इस इज्ज़त की गठरी का बोझ कब तक सर पर उठाये रहेंगे और इस गठरी के नाम पर कितने अत्या चार करेंगे? बहुत ही सारगर्भित और विचारणीय आलेख..

    http://batenkuchhdilkee.blogspot.com/

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  14. बहुत ही अच्छे विषय पर बहुत ही अच्छा आलेख!!

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  15. मिथ्या अहंकार की गठरी ...बोझ लिये ..फिर भी नहीं मानता ...बहुत खूब बेहद ही सार्थक आलेख ..........शुभ कामनायें !!

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  16. दिक्कत दिखावे की जो है, अच्छा लेख, बेहतर संदेश
    काश लोग सबक भी लें..

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  17. सच कहा झूठी शान समाज में ब्याप्त बहुत सारी समस्याओं की जड़ है !
    क्या करियेगा दिखावे और आडम्बर के लिए आदमी किसी भी हद तक जा सकता हैं !
    सुन्दर आलेख के लिए आभार !

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  18. बात तो आप बिलकुल ठीक कह रही हैं | इस गठरी को हमने स्वयं से, अपनों के सुख से, सुकून से भी अधिक महत्व दे दिया है , सच ही में | इस तरह से तो मैंने कभी सोचा भी नहीं था | आपका बहुत धन्यवाद एक नए पहलू पर सोच को ले जाने के लिए |

    :)

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  19. बहुत सुंदर प्रस्तुति । मेरे नए पोस्ट पर आपका इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  20. आपका पोस्ट रोचक लगा । मेरे नए पोस्ट नकेनवाद पर आपका बेसब्री से इंतजार रहेगा । धन्यवाद ।

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  21. सुंदर प्रस्तुती बेहतरीन रोचक आलेख ,.....
    नववर्ष 2012 की हार्दिक शुभकामनाए..

    --"नये साल की खुशी मनाएं"--

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