वह आदमी ..एक छोटा बच्चा सा .. पहली बार मेरी पलकों का खुलना हुआ .. मैंने पाया अपलक निहारता मुझ पर झुका हुआ .. बचपन का साथी रहा वह मेरा अब मेरे संग अधेड़ हुआ जा रहा था .. कई कारवाँ जुड़े और टूटे पर उसका जुड़ाव कभी न टूटा ..बंधा हुआ था वह मुझसे अद्रश्य किसी डोर से .. देखा मैंने उसको कितने ही आवरणों को बदलते .. रंग बदलते … देखा मैंने उसको सुनहले रंग में और देखा उसके आँखों के अंदर कितना गहरा काला ..मुसीबतों के मझधार में डूबती मेरी कश्ती को मुस्कुरा कर पार लगाता .. मेरे आँखों से आंसू छलक आते तो कहता चल पगली अब हँस भी ले…वह अपनी आरामदेह बाहों में लपेटे रहता .. पर कभी कुटिल मुस्कान के साथ .. अच्छी खासी हरियाली राहों से उठा दुःख के भट्टी में मुझे धकेल देता.. मैं चिल्लाती रह जाती ..लेकिन जब भी ऐसा करता हर बार मुझे निकाल भी देता .. कुछ ढ़ींठ भी था वह .. लेकिन हर बार उस भट्टी की आंच से मैं खुद को निखरा पाती… शायद वह मुझ में और निखार चाहता था … कभी रुग्णावस्था में मुझे अस्पताल भर्ती किया जाता तो वह रात दिन की ड्यूटी देता मुझसे थोडा छिटक कर .. और जब अस्पताल से छुट्टी मिलती तो वह भी अन्य लोगो के साथ मुझे थामे घर ले आता …हर अँधेरे में हर उजाले में .. चाँद सूरज गवाह थे और अँधेरा भी .. उसका मेरे संग होना ..| समुन्दर की लहरों का पांवो पर मचलना या बादलों को ऊपर से झांकते मुझे रिमझिम बरसा में पिघलाना .. अपनी साँसों से फूंक जाता था वह सांस मेरी .. पर जब भी जानना चाहा उसका नाम बड़ी चालाकी से टाल जाता था वह ..कह देता था तुम्हें आम खाने से मतलब या गुठली गिनने से … मैं कैसे कहूँ कि इतने बरसों में मुझे उसे देखने की आदत हो गयी है …जो आदत, आदत हो जाती है वह आदत नहीं, जिंदगी हो जाती है .. भला कोई अपनी धडकनों को जान पाया है कभी या कोई अपनी साँसों को आते जाते देखता है वह मेरी वैसी ही तो आदत है जिसे मैं समझती नहीं पर जो है और मैं उससे बेपरवाह .. आज उस कालगर्त में पैर फिसलते अँधेरे में किंचित घबराई न थी मैं जब तक मैंने जाना था वह मेरे साथ है .. फिर मैंने पाया था महज चार कन्धों पर मिटटी का एक ढेर मुझसे था | लोंग पुकार रहे थे उस आदमी को क्यूंकि वो मेरा और मेरा ही साथी था .. मैंने भी उसे पुकारा पर अब वह सुनने वाला न था क्यूंकि समय की घिरनी में उसका मेरा साथ इतना ही था .. वह दूर जा चुका था .. मैं उस अंधियारे गर्त से निकल दूर क्षितिज में एक चमकते सितारे की ओर बढ़ चली जहां शायद वह मुझे फिर से मिल जाए .. आज जाना था मैंने उस आदमी का नाम | वह मेरी “ जिंदगी” था |
जिंदगी फिर से मिल जाना, मुझको गले लगाना |
………….डॉ नूतन गैरोला --- 3 अगस्त 2012 … समय - 11 : 50 AM |
वाह!!!!!!!!!!!!
ReplyDeleteबेहतरीन............
अनु
बहुत भावपूर्ण प्रस्तुति...रचना के भाव और अभिव्यक्ति अंतस को छू गये..
ReplyDeleteबहुत स्पष्ट, शब्द दर शब्द उतरता गया..
ReplyDeleteबहुत अच्छी प्रस्तुति!
ReplyDeleteइस प्रविष्टी की चर्चा कल शनिवार (04-08-2012) के चर्चा मंच पर भी होगी!
सूचनार्थ!
आज जाना था मैंने उस आदमी का नाम | वह मेरी “ जिंदगी” था |
ReplyDeleteवाह ,,, बहुत बढ़िया प्रस्तुति,,,,
RECENT POST काव्यान्जलि ...: रक्षा का बंधन,,,,
marmik prastuti..........
ReplyDeleteज़िन्दगी मे ज़िन्दगी से मुलाकात हो गयी
ReplyDeleteअब चाहतों को किसी परवाज़ की जरूरत नहीं
बहुत ही खूबसूरती से बयां की है आपने ..........
ReplyDeleteवाह ! जिंदगी हमें ऐसे ही खेल खिलाती है..शायद हम स्वयं ही खेलना चाहते हैं..जिंदगी हमें तपाती है, निखारती है और फिर एक दिन नया बनने के लिये छोड़ जाती है..
ReplyDeleteवाह ...बेहतरीन
ReplyDeleteबहुत खूबसूरती से दिल में उतर जाती है यह प्रस्तुति.
ReplyDeleteबधाई नूतन जी.
बेहतरीन...
ReplyDeleteजिंदगी फिर से मिल जाना,मुझको गले लगाना
ReplyDeleteआह! जिंदगी.
उस करुनामय जगतपति का अनुपम उपहार.
बहुत सुन्दर भावपूर्ण प्रस्तुति.
एक अरसा हो गया है मेरे ब्लॉग पर आपके शुभ दर्शन किये.
जन्माष्टमी के पावन पर्व की अग्रिम शुभकामनाएँ.
Please read the post I had published on your poems in Khamosh Khamoshi aur Hum....
ReplyDeletehttp://www.blogger.com/blogger.g?blogID=6474592890557237793#editor/target=post;postID=6675214100897785034
Anita Nihalani
इंसान का यही दुर्भाग्य है कि अक्सर वह अपने जीवन रस को देर से ही समझ पाता है।
ReplyDeleteसार्थक रचना के लिए हार्दिक बधाई।
............
डायन का तिलिस्म!
हर अदा पर निसार हो जाएँ...
dr sahiba .. kya kahun .. abhe abhe aap ke is blog per jane ka maukaa milaa.. aapke vividh personality ko naman . abhee padungaa.. tab tak ..ABHAAR..
ReplyDeleteबेहतरीन भावपूर्ण प्रस्तुति...
ReplyDeleteदिल को छू लेनेवाले भाव....
वाह बहुत उम्दा चित्रण
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