नदी की खुशियाँ **************** खुशियाँ जब जब आईं मैने मुट्ठी भर भर बिखरा दिया चारों तरफ इस आशा से कि लहलहाएं - खुशियों की हरियाली चारों दिशाओं में ... मुस्कुराते रहें चेहरे अपनी उमंगों में और उनकी मुट्ठी में रहे सलामत खुशियों की सौगात और उनको मुस्कुराते देख मेरे भी चेहरे पर निरापद बनी रहे मुस्कान न रहे अपनी फिक्र - न किसी से पाने की उम्मीद, मेरे हाथ खाली हैं और झोली में कुछ भी नहीं है शेष .. नहीं चाहिए मुझे अब नदी होने का सम्मान कि बहती रहूँ बिना कुछ मांगे बूंद बूंद सोख ली जाऊं किन्हीं अनजान बहारों की खातिर ... न नदी कहकर देना मुझे भुलावा कि जो आये और धो जाए अपने हाथ और मेरे पावन तट को कर जाए पंकिल, देखो ध्यान से अब मैं बूँद नहीं उस पानी की जो ठहर जाऊं किसी पलक के किनारे ... कि आंसू बन टपक कर गिर जाऊं अपनी आँखों से असहाय – आज मत पूछो मुझसे कि जिन्दगी के हानि-लाभ में क्या खोया - क्या पाया है मैंने, बेशक हाथ खाली हैं और भर आया है मन - आज मैंने अपनी मुट्ठी बांध ली है बेहिचक।……………. ~ nutan ~ |
मुठ्ठी बाँध ली है, रोचक।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
इंजीनियर प्रदीप कुमार साहनी अभी कुछ दिनों के लिए व्यस्त है। इसलिए आज मेरी पसंद के लिंकों में आपका लिंक भी चर्चा मंच पर सम्मिलित किया जा रहा है और आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा कल बुधवार (03-04-2013) के “शून्य में संसार है” (चर्चा मंच-1203) पर भी होगी!
सूचनार्थ...सादर..!
ReplyDeleteबहुत भावपूर्ण रचना--
एक समय आ ही जाता है जब नदी भी अपने-आप से
पूछने लगती है--मेरे पास क्या शेष--
यही,जीवन की नियति है--शेष-अशेष
खाली मुट्ठी कभी कभी बहुत कुछ भरे रहती है भीतर..बहुत सुंदर भावभीनी कविता..
ReplyDeleteअति सुंदर शुभकामनाये , मेरा ब्लॉग भी देखे , जो गलतिया की हो वो बताये , आप मेरा मार्गदर्शन करें, आभार ...