अँधेरे में छिपे वे लोग कभी दिखते नहीं दिन के उजालों में भी अदृश्य वे, सड़क चलते आवारा कुत्ते डरते है लोग उनसे दूर से ही दिख जाते है एक बिस्किट गिरा देते है या थोड़ा संभल कर निकल जाते है ... वही एक प्राचीर को गढ़ते एक भव्य महल को रचते एक बहुमंजिली ईमारतों को रंगते वे लोग नजर नहीं आते ... उनकी देह की सुरंग में कितना अँधेरा है एक नदी बहती है जहां पसीने की उसी में कही वो डूब जाते है अपनी मुकम्मल पहचान के लिए नहीं अपने निर्वाण के लिए मिट्टी की खुशबू के साथ .... और रात को जगमगाती रौशनी में स्वर्ण आभाओं से सुसज्जित लोग सम्मान पाते है वहाँ उसी ईमारत में .... नहीं दिखेगा उस इमारत की जगमगाती रौशनी में वह कभी कहीं वह चिमनी में रोशनी के लिए कुछ बूँद तेल की दरकार करता है उधार ब्याज पर गिडगिडाता है| …. ~nutan~ |
gahraai liye marmikta liye sundar abhivyakti .badhai nutan ji .
ReplyDeleteआम इंसान की व्यथा गाथा का दारुण दर्द बयां करना जिस्म के साथ रूह का भी ..कोई आपसे सीखे
ReplyDeleteसच, रूह पसीजता है मेरा भी उसी निर्वाण के लिए...
समाज के अंधकार को जी के चले जाते हैं, वे इस अँधकाल में।
ReplyDeleteसुंदर रचना |
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDeleteगणेशचतुर्थी की हार्दिक शुभकामनायें!