वो सामने एक बर्फ का ढेला औंधी पडी कुल्फी सा प्लेट पर ... कि जिसको चाहा था राजिया ने बेसब्री से और कि कुछ गर्मी तो हो उसके लिए .... कि छू सके सहला सके प्रेम से हाथों में उठा तो सके ... छूने की इस तमाम ख्वाहिश में ठोस ढेला खो गया पानी पानी हो गया ............. और हादसे के बाद जब भी पानी को देखती है राजिया तमाम उष्माओं को खो कर प्रेम में बर्फ हो जाना चाहती है ढेले को छूना चाहती है पोरों पर और हाथों में हाथ रख कर हथेलियों की जुम्बिश में खो देना चाहती है चेतना को ........... ------------------------------- पर इसके पलटवार शहर की गलियों में राजिया को चुस्की खाते देखा है लोगों ने लाल लाल होंठों पर शायद राजिया दर्ज करती है विद्रोह बर्फ के खिलाफ गर्मी के खिलाफ .................... |
जीती रही जन्म जन्म, पुनश्च- मरती रही, मर मर जीती रही पुनः, चलता रहा सृष्टिक्रम, अंतविहीन पुनरावृत्ति क्रमशः ~~~और यही मेरी कहानी Nutan
Wednesday, January 15, 2014
बर्फ के खिलाफ जारी है उसका विद्रोह
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बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
ReplyDelete--
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (15-01-2014) को हरिश्चंद का पूत, किन्तु अनुभव का टोटा; चर्चा मंच 1493 में "मयंक का कोना" पर भी है!
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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मकर संक्रान्ति (उत्तरायणी) की शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
मानसिक शीत के विरुद्ध किस तरह जूझे जीवन
ReplyDeleteवाह...बहुत.सुन्दर भाव
ReplyDeleteराजिया के माध्यम से गहन भावाभिव्यक्ति.
ReplyDelete'राजिया' प्रतीक के बारे में कुछ और प्रकाश डालियेगा.
राजिया .. यह प्रतीक मेरे केबिन से लिए गए एक पात्र का नहीं ऐसे अनेकों पात्र का चित्रण है जिन्हें मैंने बारीकी से समझा और फिर बदलते हुए देखा ... सादर राकेश जी
Deletebehtareen post.
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