Monday, March 10, 2014

अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस की चमक और नारी निकेतन का अन्धकार



                         सूफी से गोल गोल घूमते हुए नाचते हुए भक्त, किसी दूर से आती हुई ढोलक की थाप पर , भक्तिमय इस माहोल पर दिल बाग़ बाग़ हुए जा रहा था कि जाए हम भी जा कर वहां बैठ जाए .... कुछ हम भी भक्तिमय हो जाए ... पर मुझे तो अपना कार्य देखना होता है ... मुझे मरीज देखने थे वहां .. जी हां .. नारी निकेतन मैं थी मैं उस वक्त और वह नाचती हुई महिलायें नारी निकेतन की ... मैं एक मेज पर बैठी थी हिदायते चारो ओर थी तस्वीर खींचने की मनाही .. प्रवेश द्वार पर भी एक हिदायत कि बिना मजिस्ट्रेट की आज्ञा के प्रवेश वर्जित ............. खैर, हमें तो तकलीफों ( शारीरिक ) से बाबस्ता होना था .... सूनी आँखें कहती थी कि ये तकलीफें बहुत कुछ अपनों की चाहत में बड गयी ... फिर चीखने की आवाजे .. बार बार चिल्लाती औरते, लड़ती औरते, रोने की आवाजें और वो भक्तों की तरह झूमती औरतें ... वह भक्तिमय नहीं था जो दूर से नज़र आता था, वह घोर मानसिक अवसाद और वितृष्णा थी ................................... एक तरफ अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस पर बहसों की चकाचौंध ............................ दूसरी ओर अपने गम के अंधेरों में खोयी हुई ये महिलायें, शारीरिक मानसिक कष्टों में भोजन और जीवन के लिए लड़ती स्त्रियाँ ... जिनकी इरले बिरले ही कोई सुनवाई हो ....... समाज में इनके लिए कहाँ जगह थी कोई स्वीकारोक्ति ही नहीं थी जब इनके घर वाले भी इनको दर दर भटकने के लिए छोड़ गए ... ऐसे में मुझे वह पगली सी सड़क की लड़की ( २५ साल उम्र लगभग ) बहुत याद आई .... जो हरिद्वार से रात २ बजे लाइ गयी थी ...... प्रसव पीड़ा थी पर और दो बार उसका सीजेरियन ओपरेशन हो चुका था ... वह चिल्ला रही थी, क्रोध में भाग रही थी ..अपने पर हाथ नहीं छूने दे रही थी ... गंजी थी वह और पूरे कपडे लहुलुहान ..... उसे मालूम भी नहीं था कि ये लोग उसके हितेषी है .... सोचती हूँ इस वहशी समाज में वह रात रात को कैसे सड़क में जीती थी होगी ... कितने ही बलात का वह शिकार हुई होगी ... उसका बच्चा और वह अब किसी ऐसी ही जगह सहारा पाए होंगे ... वह ४ साल की लड़की भी याद आई जिसको बलात्कारियों ने सड़क पर छोड़ दिया था और वह माँ पिता की तलाश में देहरादून लायी गयी थी .... पर वह शायद कुछ भी सही नहीं बता पा रही थी और अनाथ हो चुकी थी ...

पर जिस एक बात की मुझे ख़ुशी हुई वह थी कि कुछ लडकियां वहां से स्कूल पढने जाती है .................. लेकिन वे घर आ कर कैसे पढ़ती होंगी .... जहाँ बार बार चीखते लोग ....... चीजें पटकते आपस में लड़ते या रोते हुए लोग है ... 

         मेरा व्यक्तिगत सोचना है कि हम ऐसी महिलाओं के लिए संस्थागत  मनोवैज्ञानिक  इलाज, काउंसलिंग करें, घर वालों को उनसे मिलने के लिए उत्साहित करें और उनको मिलवायें, इसके अलावा उनको आउटिंग करवाएं ताकि उनका भी एक बड़ा आसमान हो ..... उनकी ऊर्जा को किसी सकारात्मक कार्यों में लगवाएं ताकि वह भी समाज के लिए योगदान दे कर अपने होने को सार्थक समझ सकें .... साथ ही हमें दिवाली या शादी ब्याह या जन्मदिन और उत्सवों के खर्चों में से फिजूलखर्ची को बचा कर मिलजुल कर ऐसे लोगो के लिए मिलजुल कुछ  नेक कार्य करना चाहिए ......
( सेंसर कर के लिखा गया )

                                       

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति...!
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (11-03-2014) को "सैलाव विचारों का" (चर्चा मंच-1548) पर भी होगी।
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत ही खूब आलेख और जो रौशनी आपने महिलाओं/किशोरियों पे डाली है वो शोध क़ाबिले तारीफ़ है।
    सादर

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  3. संवेदनाओं की अनुपस्थिति का ठीकरा किसके सर फोड़ें।

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  4. मार्मिक चित्रण

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  5. सार्थक चिंतन ... ऐसे लोगों के साथ रहना और उनका ख्याल रखना की सोच हर किसी में होना जरूरी है ...

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