Saturday, August 31, 2013

अँधेरे के वे लोग



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अँधेरे में छिपे वे लोग कभी दिखते नहीं

दिन के उजालों में भी

अदृश्य वे,

 

सड़क चलते आवारा कुत्ते

डरते है लोग उनसे

दूर से ही दिख जाते है

एक बिस्किट गिरा देते है या

थोड़ा संभल कर निकल जाते है ...

 

वही एक प्राचीर को गढ़ते

एक भव्य महल को रचते

एक बहुमंजिली ईमारतों को रंगते

वे लोग

नजर नहीं आते ...

 

उनकी देह की सुरंग में कितना अँधेरा है

एक नदी बहती है जहां

पसीने की

उसी में कही

वो डूब जाते है

अपनी मुकम्मल पहचान के लिए नहीं

अपने निर्वाण के लिए

मिट्टी की खुशबू के साथ ....

 

और रात को

जगमगाती रौशनी में

स्वर्ण आभाओं से सुसज्जित

लोग सम्मान पाते है वहाँ

उसी ईमारत में ....

 

नहीं दिखेगा उस इमारत की

जगमगाती रौशनी में वह कभी

 

कहीं  वह चिमनी में रोशनी के लिए

कुछ बूँद तेल की दरकार करता है

उधार

ब्याज पर

गिडगिडाता है|

…. ~nutan~

Thursday, August 1, 2013

अधूरी स्वीकृति



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अधूरी स्वीकृति
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खिलता क्यों है फूल
टूट जाने के लिए
पंखुड़ी पंखुड़ी
बिखर जाने के लिए
रह जाते है शेष
कुछ कांटे कुछ ठूंठ
एक विराम की तरह|
कि जिससे पहले की गाथा
एक कोमल युग की कहानी थी
और जिसके बाद ..................... |
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कभी जान पाया है कोई कि उस पुष्प की अभिलाषा क्या थी ?
हर फूल की अपनी अपनी एक कहानी
कोई दलदल का कमल, तो कोई रात की रानी
कोई प्युली तो कोई बुरांस
कोई गुलमोहर तो कोई पलास
कोई चंपा कोई कचनार
कोई गेंदा तो कोई गुलाब ...........
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तुम किस किस को बूझोगे किस किस को सुनोगे?
यह प्रश्न तो मेरे लिए है, तुम्हारे लिए एक सहज उत्तर ..
फिर भी साथ बने रहने के लिए
सुनो! उस सूखी बावड़ी के किनारे
जहाँ कोमल इच्छाएं करती हैं आत्महत्या
हम एक बागीचा लगा देते है सभी कोमल फूलों का
कि तुम हाथ में लिए रहो उनका लेखा जोखा
थोड़ी काली मिट्टी और बुरबुरी खाद
फिर बैठ कर साथ उन फूलों के रंगों पे गीत गायेंगे
बाटेंगे उनका सुख दुःख
उन्हें गले लगा अपनाएंगे
अपने मन में उठे कोलाहल को दबाये
पूर्ण स्वीकृति के साथ
हम बावड़ी के किनारे खिलते फूलों के साथ
अपने पलों को मह्कायेंगे|
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शर्त इतनी है मेरी
कि मुझमें फिर कभी मत ढूंढना
विराम से पहले का
वह कोमल गुलाब|
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निगोड़ी तेरी नौकरी भी न सौतन, दुश्मन ... ~nutan~

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