बचपन के संस्मरण आज बाल दिवस पर मैं अपने बचपन के एक दो किस्से आप सभी से शेयर कर रही हूँ | क्यूंकि हम भी कभी बच्चे थे | |
बालमन - कहीं देखा सर्कस में रस्सी पर झूलती लड़की- मैंने चाहा की मै भी उस लड़की के जैसा कारनामा करूँ| तब में LKG में पढ़ती थी | उम्र लगभग तीन साल से चार साल के बीच | माँ ने हम दोनों बहनों को तैयार किया स्कूल जाने के लिए | मेरी कंघी पहले की और छोटी बहन के वो बाल बना ही रही थी कि मै बाहर बरामदे में आ गयी | ८-१० सीढ़ी नीचे सड़क थी और बरामदे में एक गोल स्तंभ था | उस स्तंभ के पास खड़ी नीचे सीढियाँ को देख जाने क्यों वो सर्कस के करतब याद आये .. और अपने ऊँगली में मैंने बदरीनाथ भगवान की अंगूठी देखी सोचा क्यों ना इसे खम्बे में अटका कर झूला झूलूँ जोर जोर से जैसे सर्कस में हतप्रभ करने वाले करतब देखे, उनकी तरह | और मैंने अपनी ऊँगली सीधी की और अंगूठी को खम्बे में फ़साने का जत्न करते हुवे लटक गयी और झूलने लगी - अरे ये क्या ! मै तो धडाम से उंचाई से १० सीढ़ी नीचे गिर पड़ी | सीधे सीढ़ी के कोने से सर जा टकराया |जाने क्यों दर्द नहीं हुवा मुझे | सड़क पर आते जाते लोग ठिठक गए | और मैंने चाहा दिखाना कि मै कोई छोटी बच्ची नहीं हूँ | सीधे खड़ी हुवी और सीढ़ी की ओर मुडी |सीढ़ी चढ़ने लगी कि नजर गयी ऊपर वाली सीढ़ी पर जहाँ पर मेरे सर से खून का फव्वारा झड रहा था |माथे के बायीं ओर से तेज खून की धारा फव्वारे के रूप में निकल रही थी| तब तो चोट की डर नहीं माँ की डांट के डर से सिहरन उठने लगी | दरवाजे से अंदर पहुंचते ही माँ ने मेरे चेहरे की जगह बहती खून की धारा देखी तो घबरा गयीं | हाथ से उन्होंने मेरा माथा दबाया पूछा ये क्या हो गया , कैसे हो गया .. बड़े भाईसाहब को आवाज लगाने लगी | एक साफ़ साडी को चीर कर माथे पे पट्टी बाँधी भाईसाहब और माँ ने | छोटी बहन थी घर में और माँ ने किचन में खाना भी चढाया था अतः भैया को आवश्यक हिदायत दे कर खुद मुझे गोद में ले बहुत तेज क़दमों से पास के क्लिनिक, जो की शायद आधा किलोमीटर दूर था ले गयी| मैं माँ की गोद में थी और मेरा सर माँ के कंधे पर था, माँ के खुले बालो से टपकता खून मुझे आज भी दिखाई देता है| दौड़ती भागती माँ डॉक्टर के पास पहुची तो डॉक्टर किसी अन्य केस में व्यस्त था और मेरा इलाज शुरू होने में देर हो गयी | जब मेरा नंबर आया तो डॉक्टर को टांके मारने /सिलने के लिए सुई ही नहीं मिली | और कहा कि सुई लाने तक बच्ची के शरीर से काफी खून बह जायेगा| अतः उन्होंने मेरे घाव की पेकिंग कर दी और ऊपर से पट्टी कर दी | जिसकी वजह से उस समय मेरा खून तो रुक गया पर मेरे माथे पर एक गहरी चोट का निशान रह गया |अब आई पूछताछ की बारी, जब शाम को घर पे पूछा गया कि कैसे गिरी | मेरी गिग्घी बंध गयी| ऐसा लगा कि इस तरह से झूला झुलना और मूर्खता करना अपराध था |जाने कौन सा भय मुझे कचोटने लगा कि मार अब पड़ी तब पड़ी| और भय में मैंने अपने को बचाने की एक युक्ति निकली | कह दिया किसी ने मेरा हाथ खिंचा था | ये कहना क्या था कि माँ डर गयी | बोली किसने खिंचा था बता | याद कर | कहने लगे सूरत किस से मिलती जुलती थी | अब तो झूठ बोल चुकी थी अब बचने की और सूरतें भी खतम हो गई| कह दिया कोई देखा देखा सा है | पूछा किसके जैसा उस बच्ची ने कहा दूध वाले के बेटे जैसा | बोला कि झूट तो नहीं बोल रही है | वैसे झूठ बोलना आदतों में सुमार ना था| झूट बोला मैंने कांपते दिल से| कुछ कुछ उसके जैसा था | नहीं चाहती थी कि बात आगे बढे पर बात थी कि रुकी नहीं | और उस छोटी बच्ची को अगले दिन दूध वाले के घर ले जाया गया | धुंधली यादें है कि आँगन में उनके बच्चे खड़े थे और मैं माँ से चिपकी रो रही थी अब डर था कि उन बच्चो को मेरी वजह से मार न पड़े | जब जब वो पूछे की पहचानो मैं और डर कर जोर जोर से रोने लगती | आखिरी में दो तीन बच्चो के बीच मैंने कहा कि इनके जैसा था पर ये नहीं और उन बच्चो को भी राहत मिल गयी | उस दिन का वो झूठ जो अनायास बोला, मै जिंदगी भर झूठ बोलने से डर गयी | तीन साल की थी डर ऐसा व्याप्त था कि इसे कभी भुला नहीं सकी | मै खुद को उन बच्चो का गुनाहगार मानती रही और ये सर की चोट सदा याद दिलाती रही हादसे की और आज भी मुझे झूठ से सख्त नफरत है | |
बचपन कितना सरल और भोला होता है..झूठ सच नहीं जानता || जिसने जैसा बताया मानता है | विस्मित होता है किन्तु विश्वास करता है क्यूंकि उसके लिए दुनिया की हर चीज नयी और विस्मय से भरी होती है | एक रोज घर में, छुट्टी पर पिताजी और सभी थे | किन्तु दिन में ( र ) भाईसाहब जी, जो कि तब पांच साल के रहे होंगे बाहर खेलने गए |थोड़ी देर बाद किसी बच्चे कि हृदयविदारक चीख और रोने कि आवाज से सब चौंक गए | भाईसाहब (र) रोते हुवे घर आ रहे थे | उनका मुँह खुला का खुला था | पिता जी ने कहा, क्या हुवा ? क्यों रो रहे हो ? किन्तु भाईसाहब और जोर जोर से रोने लगे - बेहद भयभीत थे और उनका सारा शरीर अकडा हुवा था पिता जी ने जैसे ही (र) को छुवा वो पैर भी पटकने लगे | सब घबरा गए कि कही सांप ने तो नहीं काटा होगा ? क्या हुवा होगा ? पूछते रहे पर वो सुन भी नहीं रहे थे, अब तो मुँह भी खुला था और पैर भी पटक रहे थे और पूरा शरीर ऐंठा जा रहा था और डर से पसीने भी छूट रहे थे - पिताजी ने फिर गुस्से में कहा ताकि वो अपनी समस्या के बारे में बताएं बोल क्या हुवा | तो (र)भाईसाहब के मुंह से एक वाकया फूटा – “ मुर्दे की खीर “ |मुर्दे की खीर जैसे शब्द से सभी नावाकिफ थे, सब घबरा गए - भैया ने बाहर की तरफ इशारा कर के बताया मुर्दे की खीर | बहुतेरी कोशिश की गयी कि वो बताएं कि क्या हुवा उनके साथ ..लेकिन डर के मारे उनका शरीर अकडा हुवा था बस अब एक ही शब्द बोल कर चिल्ला रहे थे - मुर्दे की खीर - फिर एक जोर की थपकी पडी गाल पे | एक दम भाईसाहब को होश आया | माँ भी बोली कि बताओ क्या हुवा क्यों इतना रो रहा है | भाईसाहब ने बाहर इशारा किया मुर्दे की खीर और डर के मारे माँ की गोद में छुप गए जैसे अब मुर्दे की खीर से कोई अनर्थ होने वाला है और चिल्ला रहे थे मुझे बचाओ | पिता जी बाहर गए कुछ बच्चे वहाँ पर भयभीत थे | पिता जी ने उनसे पूछा क्या बात है बच्चो क्यों डर रहे हो | तब एक बच्चा फटी फटी आँखों से बोला अंकल जी, अभी यहाँ से लोग एक मुर्दे को उठा कर ले जा रहे थे और उस पर चावल डाल रहे थे | तब पिता जी ने सड़क पर देखा तो बहुत चावल के दाने फैले हुवे थे | चावलों को देख पिता जी ने कहा तो क्या हुवा चावल के दानो से ? बच्चो ने बताया की एक बहुत बड़े भाईसाहब यहाँ पर खड़े थे उन्होंने कहा की बच्चो ये चावल के दाने मुर्दे की खीर हैं | ये मुर्दे का खाना है | इस लिए इस बात का ख्याल रखना कि इस पर पैर न लगे नहीं तो मुर्दा उस बच्चे को खा जायेगा | ( किसी ने बच्चो के साथ मजाक की थी ) बच्चों ने बताया कि उस समय वो लोग सड़क के उस पार खड़े थे | सड़क को पार करने के लिए उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ी | एक एक कदम उन्होंने सड़क पर बैठ बैठ कर चावल के दानो को देख कर कर रखा जो कि बहुत कठिन था | किन्तु बेचारे ( र )का पैर एक चावल के दाने पर छू गया था ..उसके साथ रास्ता पार करते उसके दोस्त (म ) ने भी देखा | म चिल्लाया और र घबरा गया वह चीखता हुवा घर भागा |बच्चे बोले - अंकल हमने तो सड़क पार कर दी पर र का अब क्या होगा? पिता जी के हँसते हंसते बुरे हाल हो गये | किन्तु र भाईसाहब को मुर्दे की खीर के भय से आजाद करने में समय लगा | घटना के समय मैं बहुत छोटी थी | जो सुना वो बताया | |
अरे ! वो जलते दीये किसने बुझा दिये हैं ?.. वह वृद्धा उस झोपडी में उस घुप्प अन्धकार में ? जिसने कल्याण किये हैं ..|| वो अट्टालिका वो इमारते जगमगाती रोशनी है जिसमे, असंख्य विद्युत बल्ब हैं , पराया रक्त चूस कर जिसमें || वह वृद्धा उस अन्धकार में उठती कुछ टटोलती | गोद में ले एक रोग पीड़ित परोपकार का बच्चा || उठती वह खांस कर, कुछ कदम लड़खड़ा कर | वापस लौट आती है वो इमारत में झाँक कर || आज अब वो झोपड़ी निरंग और सुनसान है | बुढ़िया का न बच्चे का उस झोपड़ी में कहीं नाम और निशान है || काश !ऐ इमारत वालो तुम में कुछ दया भाव होता | तुमने बंद खिड़की को खोल कुछ प्रकाश पुंज बिखेरा होता | तो आज इस धरती पर एक पवित्र आत्मा का तो निवास होता || द्वारा .. Miss Nutan Dimri / डॉ नूतन गैरोला यह कविता मै, जब १५ साल की थी, तब लिखी थी पुरानी डायरी के पन्नो से उतारी है | और डायरी के वो पेज भी मैंने फोटो में डाले हैं पुराने यादे - कविता बचपन की बाल दिवस पर हार्दिक शुभकामनायें और बधाइयाँ |
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बहुत सुन्दर पोस्ट!
ReplyDeleteबढ़़िया बाल कविता और रोचक संस्मरण!
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बलदिवस की बधाई स्वीकार करें!
बाल दिवस पर यह संस्मरण बहुत बढ़िया लगे ...विशेष रूप से कविता ...परोपकार का बच्चा ...कहीं खो गया है ...बहुत सार गर्भित रचना ..
ReplyDeleteनूतन, ये ब्लॉग तो है ही ख़ूबसूरत लेकिन जो तुम्हारा स्वाभाविक अंदाज़ है लिखने का वोह मन मोह लेता है...और तुम्हारे बचपन के संस्मरण बहुत ही रोचक लगे.
ReplyDeleteबाल दिवस की शुभकामनायें.
ReplyDeleteआपकी रचनात्मक ,खूबसूरत और भावमयी
प्रस्तुति कल के चर्चा मंच का आकर्षण बनी है
कल (15/11/2010) के चर्चा मंच पर अपनी पोस्ट
देखियेगा और अपने विचारों से चर्चामंच पर आकर
अवगत कराइयेगा।
http://charchamanch.blogspot.com
ग़रीबी के दर्द की ऐसी दुख भरी बयानी बहुत ही कम जगह पढने व सुनने मिलती है, नूतन जी को बधाई।
ReplyDeleteबहुत अच्छे संस्मरण मुझे भी बचपन याद दिला दिया
ReplyDeleteहाहाहाहा....खून पीते तो मोटे हो जाते। मुर्दे की खीर .हंसी रुकी नहीं। ऐसा ही होता है बचपन। हमारे घर के पास ही बाजार है। जब रात होती थी औऱ मां किसी को कुछ लाने के लिए कहती थीं तो बढ़ी दीद या छोटा भाई अकेले जाने से डरते थे। डरता तो मैं भी था. पर जाहिर नहीं करता था। क्योंकी छोटे से बड़ा हूं, और दीदी से छोटा पर घर का बड़ा लड़का सो जिम्मेदारी का अहसास तो वैसे ही बचपन में ही आजाता है। सो डरते डरते ही सही उन लोगो के साथ जाता था पर मन में बजरंग बली की हुनामन चालिसा का पाठ करता रहता था।
ReplyDeleteहां एक बात बताईए..वो कविता लिखते वक्त आप कितने साल की थी। बच्ची मतलब क्या 6-7 साल की। क्योंकि कविता तो काफी मार करने वाली है। ऐसे में लगता है कि आप बचपन से ही काफी तीखी नजर रखती हैं।
बाल दिवस पर अपने सुंदर संस्मरण साझा करने के लिए आभार ...
ReplyDeleteसच यही होती है बचपन की मासूमियत :)
नूतन जी बहुधा हम बचपन को भूल जाते हैं और उस समय जो भी उछल कूद की उसे बड़े होने पर बचकाना समझ लेते है परन्तु बचपन की अपनी हि एक दुनिया है ...अपना मजा है ....हर बच्चे के जीवन में कुछ घटित हुआ है परन्तु आपने संस्मरण जिन्दा हि नहीं रखे अपितु उनसे प्रेरणा भी ली है ...बेहद रोचक ...इस क्रम को जारी रखियेगा ....साधुवाद
ReplyDeleteबाल - दिवस के मौक़े पर बड़ी सामयिक और सार्थक पोस्ट लगाई है आपने
ReplyDeleteरोहित जी धन्यवाद... बचपन का मतलब आज के सन्दर्भ में १४ -१५ साल के बच्चे छोटे ही बच्चे लगते है.. अतः जब में १४ - १५ साल की थी तब यह कविता लिखी थी... तो बचपन / बच्ची लिख दिया था... आपका भी संस्मरण कोई कम नहीं..धन्यवाद..
ReplyDeleteआपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शनिवार 14 नवम्बर 2015 को लिंक की जाएगी ....
ReplyDeletehttp://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!