तुम यकीन नहीं करोगे सच मेरी दौड है खुद से मैं खुद से जीत जाना चाहती हूँ मैं यकीनन अपनी पहचान बचाना चाहती हूँ तुम हो कि मेरे खुद में अतिक्रमण कर चुके हो व्याप्त हो चुके हो मुझमे जैसे कोई दैत्य किसी देह में आत्मा को जकड कर ……… पर अभी चेतन्य है मन और उसे मेरा यह खुद का रूप ग्राह्य भी नहीं इसलिए वह दौड पड़ा है खुद से दूर जैसे खुशियों से लिपटना चाहता हो पर भाग रहा हो दुखों की ओर और वह नदी जो बलखाती तुम्हारे गाँव की ओर जा रही है नहीं चाहती है पलट जाना मुहाने की ओर पर देखो उसकी अविरल धार रुकते रुकते सूख चुकी क्यूंकि किसी ने भी नहीं चाहां नदी का रुख मुड़े तुम्हारे गाँव की ओर …….. और उसे बांधा गया है बांधों में पहाड़ी की दुसरी छोर| जानती हूँ अगर तुम नदी से मिलने आओगे तो तोड़ दिए जायेंगे किनारे दीवारे सैलाबों मे ढाल दी जायेगी नदी, नदी नहीं रहेगी मिटा दी जायेगी| ……………………………………~nutan~ 10 july 2013 .. 15:01 |
वाह , खुद को खुदी से अलग करना , बहुत मुश्किल है, बहुत सुंदर भाव, शुभकामनाये , यहाँ भी पधारे
ReplyDeleteरिश्तों का खोखलापन
http://shoryamalik.blogspot.in/2013/07/blog-post_8.html
कोमल भावो की और मर्मस्पर्शी.. अभिवयक्ति ....
ReplyDeleteबहुत मार्मिक और भावुक रचना, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
नित ही खुद से थोड़ा आगे,
ReplyDeleteउठ कर सबसे पहले भागे।
आपकी इस प्रस्तुति का लिंक 11/07/2013 के चर्चा मंच पर है
ReplyDeleteकृपया पधारें
बहुत खूब |
ReplyDeleteबहुत उम्दा प्रस्तुति,,,
ReplyDeleteभावपूर्ण कविता.
ReplyDeleteगहन भावों से युक्त रचना..
ReplyDeleteवाह . बहुत उम्दा,सुन्दर
ReplyDeleteखुद को कूद से जुदा करना ... बहुत खूब ...
ReplyDeleteबहुत खुबसूरत रचना..नूतन जी..
ReplyDeleteसुन्दर को सुन्दर न लिखूं ,तो क्या लिखूं , शब्द सुन्दर, भाव सुन्दर, कुल मिलाकर सब सुन्दर ही सुन्दर .अब ये कैसे हो सकता है की मै न कहूँ ....तुम भी सुन्दर , हाँ भई तुम भी सुन्दर ये सारा जग ही सुन्दर है |
ReplyDelete'चन्दर' चन्द्र मोहन सिंगला.
सुन्दर रचना , के लिए हार्दिक बधाई
ReplyDeleteगहरी अभिव्यक्ति..... विचारणीय भाव
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