शायद मैं अपना सब कुछ बचा जाना चाहती थी तुमसे दूर कूच कर जाना चाहती थी ..... पेड़ पहाड़ झरने गाँव खेत खलिहान रहट छाँव सबसे दूर कहीं दूर मेहराब वाली घनी आबादियों में .. इसलिए मैंने सांकलों में जड़ दिए थे ताले और तुम देते रहे दस्तक कि कभी तो दस्तक की आवाज पहुँच सके मुझ तक और मैंने कान कर लिए थे बंद नजरे फेर ली थी लेकिन दिल और दिमाग के लिए न हाथ थे कोई न ऐसी कोई रुई बस वो चलते रहे चलते रहे ....... इसलिए आकाश मे जब भी उमड़ते है बादल बित्ता भर खुशी के पीछे हजार आंसुओं का गम लिए मैं व्याकुल हो जाती हूँ अपनी जड़ों तक पहुँच जाती हूँ समझने लगती हूँ कि इन जड़ों के बचे रहने का मतलब कितना जरूरी है मेरे लिए, जैसे बनाए रखना पहचान को बनाए रखना अपने होने के भान को.... नहीं तो सूखा दरख़्त हो जाउंगी ध्ररधरा के गिर जाउंगी ढहते पहाड़ों की तरह ……….. ------------------------------------------------ मेरे अस्तित्व का पहाड़ बना रहे|………………. ~nutan~ |
सार्थक रचना ,,,आभार
ReplyDeleteutkrisht evm bhavpoorn rchna.
ReplyDeleteअपना अस्तित्व बनाये रखना बहुत आवश्यक है..किसी भी स्थिति में।
ReplyDeleteजड़ों को जमाए रखना आवश्यक है. वर्ना भयावह परिणाम हो सकते हैं.
ReplyDeleteसुंदर मार्मिक प्रस्तुति.
अच्छी भावपूर्ण रचना . आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (08.07.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की जाएगी. कृपया पधारें .
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति बहुत ही अच्छा लिखा आपने .बहुत बधाई आपको .
ReplyDeleteजडों से जुडे रहना जरूरी है जीवन के लिये ।अच्छी रचना
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