उत्तराखंड में अपने पीडितों के दर्द को देख दिल रो उठता है बार बार ------------------------------------------------------------------------------------
तुम्हें याद न करूँ तो बेहतर .... मेरी परछाइयाँ जब डूब गयी पानी मे और बेअदब चिल्लाते हुए बादल फिर उमड़ रहे है .... परछाइयां सतहों से उठ उठ मांगती हैं हिसाब अपना लेना देना ...………………. अभी हजारों जीवन बन् चुके है कर्ज तुझ पे माटी से रूह खंडित की है तुने चलती फिरती वो परछाइयां किधर खो गयी है मिट्टी पानी हो गयी हैं ...……. .. उन परछाइयों को छूना चाहती हूँ अब भी और इस प्रयास में दिल पर इक गहरा जख्म टीस करता है लहू धार धार बिखरने लगता है .............. ~nutan~
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पीड़ा और दर्द को बयां करती सुंदर पंक्तिया
ReplyDeleteये जख्म सालों तक रिसते रहेंगे.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत मर्मस्पर्शी प्रस्तुति...
ReplyDeleteबहुत बढ़िया,उम्दा अभिव्यक्ति ,,,
ReplyDeleteRecent post: एक हमसफर चाहिए.
लहू धार धार बिखरने लगता है....
ReplyDeleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन काँच की बरनी और दो कप चाय - ब्लॉग बुलेटिन मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteमन के मन के भावो को खुबसूरत शब्द दिए है अपने.....
ReplyDeleteहर दृश्य, हर शब्द मन आहत कर जाता है।
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना , नूतन जी
ReplyDeletedard ko bhi khoobsurati se dhala ja sakta hai ..ye yaha dekha ..ek ek shabd dard bayan karta hai ..
ReplyDeleteबहुत ही अच्छी लगी मुझे रचना........शुभकामनायें ।
ReplyDeleteआज आपके ब्लॉग पर बहुत दिनों बाद आना हुआ अल्प कालीन व्यस्तता के चलते मैं चाह कर भी आपकी रचनाएँ नहीं पढ़ पाया. व्यस्तता अभी बनी हुई है लेकिन मात्रा कम हो गयी है...:-)
उफ़।।
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