मन की खिडकी से जब भी वह ताजगी से भरा चेहरा मुझे पुकारता है...... ठिठक जाती हूँ मैं और देखती हूँ पीछे मुङ कर कितनी दूर हो चली हूँ मैं सालों साल एक लंबा अंतराल चलती चली हूँ मैं .. उम्र के पड़ाव अनेक आये कहीं रुकी नहीं मैं .. और कितने ही पहाडों से दरमियाँ बीच में खंदकों से भरे गहरे हैं फासले.... और इतनी दूरी देख घबरा कर उभर आती हैं पसीने की बूंदें अनुभवों की परतों से बाहर माथे पे झूलती सलवटों पर | सोचती हूँ क्या पहुँच पाउंगी उस तक वापस.... जहाँ मुझको गले लगाने फिर से अपनाने उतर आएगा मन की खिडकी से मेरा मस्त बेफिक्र बचपन| लेकिन जानती हूँ मैं वह अभी भी झूलता है हिलोरे लेता है मेरे मन के भीतर और अक्सर मुझे दूर जाते हुवे देखा करता है उदास मन से मेरे मन की खिडकी से| डॉ नूतन गैरोला … २३-०२-२०१२
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मन की खडकी से झाकों तो अनंत तक पहुच सकते है,
ReplyDeleteबहुत बढ़िया,बेहतरीन अच्छी प्रस्तुति,.....
MY NEW POST...आज के नेता...
jaise jaise umr badhtee
ReplyDeleteman kee khidke se utnee hee door tak nazar jaatee
ओह , तो आज कल अपने जन्मस्थान पर पहुँच कर बचपन की यादें ताज़ा हो गयी हैं .... बहुत सुंदर प्रस्तुति ॥मन को छूती हुई
ReplyDeleteबहुत सुंदर है यह मन की खिडकी।
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..की-बोर्ड वाली औरतें।
बहुत ही अनुपम भाव संयोजन लिए बेहतरीन अभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteमन की खिड़की से कितने सुन्दर दृश्य नजर आते है!...उत्तम रचना!
ReplyDeleteउस तक जाना नहीं होता ... वह अपने मीठे अंदाज में कभी किलकारियां भरते कभी ठुनकते सुबकते पीछे पीछे आता है ... बस उसकी ऊँगली थाम लो तो ज़िन्दगी के कई व्यूह खुद ब खुद टूट जाते हैं , परेशानियां तो समझदारी में है
ReplyDeleteबचपन कभी साथ नहीं छोड़ता...सुंदर कविता!
ReplyDeletesach kaha..bachpan nahi bhulaya ja sakta...bahit sundar prastuti
ReplyDeleteखुद से ही खुद के सवाल.....में उलझे है हम सभी.....सार्थक अभिवयक्ति......
ReplyDeleteकल 25/02/2012 को आपकी यह पोस्ट नयी पुरानी हलचल पर लिंक की जा रही हैं.आपके सुझावों का स्वागत है .
ReplyDeleteधन्यवाद!
मन को छूती सुन्दर प्रस्तुति। धन्यवाद।
ReplyDeleteबहुत ही बढ़िया।
ReplyDeleteसादर
कोई सीधे ही पहुँचा दे बचपन में, अनुभवों से पुनः होकर गुजरने से अच्छा कि बचपन में न जायें।
ReplyDeleteभला था कितना, अपना बचपन.....
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteबहूत हि सुंदर
सुंदर भाव संयोजन
बेहतरीन रचना...