Sunday, February 26, 2012

अशेष लक्ष्यभेद - डॉ नूतन गैरोला


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प्रत्यंचा जब खींची थी तुमने
भेदने को लक्ष्य
खिंच गयी थी डोर दीर्घकाल तक कुछ ज्यादा ही कस |
टूट गयी वह डोर
सधा था जिस पर बाण
शेष हाथ में धनुष तीर
और अनछुवा रह गया लक्ष्य |..
नूतन ..७/१२/२०११ २१ :५५

16 comments:

  1. हर कोई अर्जुन नहीं बन पता , प्रत्यंचा की पकड़ ढीली हो या कसी---- लक्ष्य गुम हो जाता है

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  2. डोर इतनी भी न खींची जाये की टूट जाये .... चंद पंक्तियों में गहन बात

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  3. बहुत सुंदर! वास्तविकता की जांच की क्षमता न होने पर यही होता है - बल्कि, रिश्तों के मामले में तो अक्सर यही होता है।

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  4. अतिप्रयास में हम लक्ष्य तक पहुँचने से पहले ही टूट जाते हैं, सटीक बिम्ब..

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  5. क्षमता का आभास होना अति आवश्यक है - सुन्दर.

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  6. बहुत सुन्दर प्रस्तुति
    आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल दिनांक 27-02-2012 को सोमवारीय चर्चामंच पर भी होगी। सूचनार्थ

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  7. meri najar mein to lakshya tak pahuchne kee koshish karna hi safalta hai... waise aapke shabdon ka jaal itna satik hai ki koi bhi ismein fanse bina nahi rah sakta...

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  8. साधना में balancing अति आवश्यक है.

    राम द्वारा शिव धनुष तोड़ने को आप किस बात का प्रतीक मानती हैं.

    क्या उन्होंने जानबूझ कर तोडा या साधने में कोई कमी हुई.

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  9. आपकी इस प्रविष्टी की चर्चा आज के चर्चा मंच पर की गई है। चर्चा में शामिल होकर इसमें शामिल पोस्ट पर नजर डालें और इस मंच को समृद्ध बनाएं.... आपकी एक टिप्पणी मंच में शामिल पोस्ट्स को आकर्षण प्रदान करेगी......

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  10. एक बार फित कोशिश करनी होगी...

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  11. कुछ शब्दों में बहुत कुछ कह दिया...गहन अभिव्यक्ति..

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  12. लक्ष्य भेदने के लिए बहुत सावधानी और .....ध्यान चाहिए ...धैर्य भी ....
    बहुत सारी बातों पर प्रकाश डाल रही है आपकी रचना ...!!
    बहुत सुंदर रचना ...

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