Thursday, January 31, 2013

कहानी दो दिन की –डॉ नूतन गैरोला


 
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सुनो !

तुम जानते नहीं

आज भी

जब कभी मैं

वो किताब उठाती हूँ

जिंदगी की अलमारी में सहेजी हुई

४५ गुणा ३६५ दिन की कहानियों में से,

महज दो दिन की कहानी.....

अनकही, अनसुनी, अनदेखी

अस्पष्ट और अस्वीकृत.........

पर यकीन नहीं होता

कि ये तमाम स्वीकृतियों से भारी थी

गवाह थी वो आँखें

जिसने पढ़ी थी कहानी

और सबूत में

अनमोल मोतियों से भीगाती रही थी

किताब के पन्ने

हर बार

शब्द दर शब्द ......

तब याद आया कहा

कि कभी हम तमाम जिंदगी, जिंदगी से रूबरू नहीं होते

कभी हम एक पल में ही पूरी जिंदगी को जी जाते है

और दुःख कि उस एक पल को भी समेट कर नहीं रख पाते हैं |………….. नूतन

Saturday, January 26, 2013

गीत नीले नीले – डॉ नूतन डिमरी गैरोला

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वो गीत  

जिसमे नायिका को थमा दिया था तुमने फूल,

लाल गुलाब का गुच्छा...................

सपनो के गलियारे से उतर आती

पलकों के आँगन में

और तुम्हारे सिरहाने पे

रात के अंधियारे में

माथे को छूती 

जीवन से भरपूर

सुनहरी परी ...............

तुमने जाना कि

लाल गुलाब पा वह मुस्कुराई होगी ....

देखा भी नहीं तुमने

कि अनायास ही

कितने तीखे शूल

उस अंधियारे में भेद गए थे

उसके जिस्म को

और लहू उसका

टप टप

बूँद बूँद

टपकता रहा था

नीला नीला ......

पर तुम्हारी उंगलिया

बुनती रही

उस गीत की फिसलनपट्टी

जिस पर फिसल कर नायिका उभर आई थी जमीं पर  ........

और तुम हो कि

लिखे जा रहे हो,

एक धुन है तुम्हें

कि गीत पूरा कब हो 

शायद तुम अभी भी अनजान हो

कि कहाँ से उतर रही है

तुम्हारे कलम से

गुजरने वाली    

उन पन्नो पे

शब्दों के मोती मोती रचने वाली  

वो स्याही

नीली नीली सी .........

.

तुम्हारे गीत जिस दिन पूरे होंगे, नीली स्याही भी उसी पल ख़त्म होगी| ,,,,,,,,,,,,,, डॉ नूतन डिमरी गैरोला

 

Sunday, January 20, 2013

तू मुझको पनाह दे - नूतन

 

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    बेगुनाही की मेरी न मुझको सजा दे,
   खफा मुझसे तू क्यूँ, ए जिंदगी बता दे|
   जिन्दा बमुश्किल चाक- ए- जिगर संग
   हलाहल पिला के तू कुछ तो वफ़ा दे |
 
   बहार आ न पाई, खिजां ढल गयी है,
   खिली भी नहीं थी कि शाख गिर गयी है|
   न मसल इस कदर तू कदम रख संभल के
   उठा के कली को अब घर को सजा दे |

   वो दो दिन नहीं थे वो जीवन मेरा था
   रंगे बहार थी कि गुल खिल गए थे|
   किधर से उठा था तुफां जिल्लतों का
   जो बुझ के मिटा है वो चिराग-ए-यार मैं था|

    चाँद बादलों में, शबे गम ढल रही है
   आँखों में लहू की नदिया पिघल रही है|   
   पश्चिम में डूबा पर अब सहर हो रही है,
   दीदार यार दे कर तू अब  नूर-ए-जहां दे|
   
 
   बेगुनाही की मेरी न मुझको सजा दे,
   खफा मुझसे तू क्यूँ, ए जिंदगी बता दे
 
   दूरी तेरी न सही जा रही है 
   हार जाएगी मौत गर तू मुझको पनाह दे|
   तू मुझको पनाह दे, तू मुझको पनाह दे|

                                 ……………………… nutan ~~  … 11:57 pm 19=01= 2013
     

  

Saturday, January 19, 2013

हवा और पानी, दोस्ती अनजानी, एक कहानी


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दो दोस्त हवा और पानी .. बिछड़ गए , दूर हो गए  .. सिर्फ एक तड़पते अहसास की तरह बस गए मन में इक दूजे के  .. अहसास भी क्या है लहरों से आते जाते हैं .. जब तक पानी और हवा है, लहरें भी हैं .. हवा का पानी संग खेलना, पानी का हवा से टकराना .. भाता था उन्हें और खुशियों की लहरें तरंगित हो जाती चारो तरफ .. ये बार बार हवा का खेलना, पानी का मचलना तरंगो का उठना कुछ तो था उनके बीच जो उन्हें बांधे रहता था … लेकिन आज पानी अपनी ढलान में बहता गया, सैलाब की तरह और हवा आसमा में उठते गई… उनके बीच जो बंधन था विश्वास का चरमरा गया था .. कहीं से नदियाँ उफनती उस सरल पानी के तालाब पर जा गिरी थी ..  सतह पर हवा तालाब के पानी से शिकायत करने लगी क्यूँ तुम ढलान पर बहती नदियों में समा गए हो … पर पानी बिफर गया अपमानित समझ  ..तोड़ कर बाँध बह चला और नीची ढलानों में .. हवा उठती गयी आसमानों में … पर ये क्या आसमान से पानी बहुत बरसा आज ..शायद इस विदाई पर हवा रो पड़ी, और शायद पानी ने चुपचाप अपना अंश हवा को दे दिया था और ये भी कि हवा ने दुवाएं देते हुए अपने अन्दर निहित ख़ुशी का पानी, निचोड़ दिया धरती पर - जा जब तक  धरती है, धरती पर पानी  है, तू भी है मैं भी हूँ और हमारी दोस्ती भी ..  चाहे दूर हो या पास .. अंतर्मन से सदा पास .. इसलिए आज भी लहरें खिलखिलाती हैं पानी पर …  जिंदगी की फसलें लहराती हैं धरती पर .. क्यूंकि जितना सार्थक जीवन है उतना ही है हवा पानी का साथ …. .
……………… nutan ~~

Friday, January 18, 2013

पुतली और सितारा … डॉ नूतन गैरोला


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                 वह, एक सितारा था, शहर के ऊपर घने बादलों के पार चाँद की दुनियां से भी बहुत दूर ... और वह औरत उसकी रौशनी में अंधेरों को मिटाती अकेले दुनियां के सफ़र में .. लोगो के लिए उसकी दुनियां चार दिवारी थी और खुद वह उस दीवार को कभी नहीं तोड़ पायी थी, न ही उस दरवाजे के ताले की चाभी उसके पास थी और दरवाजा भी ऐसा की जिसके पलड़े कभी भी बाहर की ओर नहीं खुलते थे .............

वह रात को घर की छत पर लेट अपने टुकड़े के आकाश पर बिछी काली चुनर पर, किरणों से लटके सितारे देखती और देखती के वह एक सितारा अपेक्षित सा मुंह चुरा रहा होता वह मुस्कुरा जाती कहती कितना पगला है तू, देख न छत पर तेरी ही तो रौशनी है जिसके आने पर वह गुनगुनाती है, उसको बताना चाहती कि उसके आँखों में बसी रौशनी उस सितारे के लिए है... लेकिन उसके मन की आवाज वहां तक न पहुँचती .. और अँधेरे से निकलकर चार जोड़ी चमकती आँखे चमगादड़ों की, उसे डरा जाती, वह दौड़ती हुई छत की सीडियों से उतर कर फिर चार दीवारी के भीतर अपने अंधेरों में खो जाती ..................

कितना अजनबी था यह तारा, पर कितना ख़ास हो गया था उसके लिए, इन चंद दिनों में पश्चिम का वह सितारा दूर आकाशगंगा के किनारे मद्दिम सा यदाकदा चमकता सा .. वह लड़की आँखें बंद करती और उसकी दुनियां तक सैर कर आती और समझ न पाती कि आखिर उस दुनियां में क्या है जो उसे लुभाता है .. यकायक वह फिर उठती और उठती हर भय से ऊपर और उस अनजान सितारे की रेशमी किरणों को पकड़ वह सितारे की और फिसलना चाहती है, शायद वह आज बताना चाहती है कि वह कितना अहम है उसके लिए, लेकिन जब तक वह उस सितारे तक पहुँच पाती, धुप खिल जाती और वह सितारा रौशनी में डूब कर खो जाता, उस जगह दुनियां की आवाजाही और भीड़ का काफिला सड़कों में फ़ैल जाता है, सितारा दिन के उजाले में डूब जाता, उदास मन से वह चूल्हे पर बर्तन रख देती है क्यूंकि दिन पेट का होता है और रात भूख की| सूरज के साथ उसके आँगन में फूल मुस्कुरा उठते हैं और ये फूल उसे दिन भर सितारे की याद दिलाते रहते हैं और उसका जीना और भी मुश्किल कर देते हैं .....................

उसकी आँखों के कोनो पर आंसू होते पर मजबूर पलके उनको भी अन्दर कैद कर लेती क्यूंकि उस की तरह उसके आंसू भी कैद होने के लिए बने हैं, ऐसे दरवाजों के भीतर जहाँ से बाहर आने की मनाही है .. वह उदास है .. कब शाम ढलेगी .... कब वह दूर अंधेरों में चमकते अपने सितारे को देखेगी .. बहुत देखी थी दुनियां उसने .. लोग बात बात पर छाती पर खंजर चलाने से भी कतराते नहीं थे, पीठ तो कबकी छलनी हो चुकी थी और यही वजह थी की उसे उन दीवारों के अन्दर कैद कर लिया गया था उसकी सलामती की दुहाई थी, बाहर निकला जाता तो उसके साथ सुरक्षा कवच बन कुछ चमगादड़ साथ चलते, जिनकी आँखें उसकी सांस पर भी नजर रखतीं मौका मिले तो वो हीं न कहीं उसे कच्चा चबा जाएँ .. जिनके बीच वह खुले में भी कैद हो चुकी है ............

पर आज उसे बहुत इंतजारी है सितारे की, आँखें आसमान से हटती नहीं तीन दिन हो चुके हैं, आसमान में बादल छाये हुए है, आसमान खुलता नहीं .. आँखें रो रो कर सूज गयी हैं .. आज चूल्हें पर सिर्फ बर्तन चढ़ा है, खाना उसने नहीं बनाया ... उसपर दया आ गयी उसके बाहर की औरत को, उसने आज उसके अन्दर की औरत को खुल कर रोने दिया है और खुद खाना बनाती रही है बाहर से ...आज बाहर की औरत घर की जिम्मेदारियां उठाती रही है जबकि अन्दर की औरत रोती रही है ... आज जल्दी है उसे छत पर जाने की, तीन दिन हुए सितारा बादलों के पीछे छिपा रह गया .......

आज हवाएं तेज चली थी शायद उसका साथ दे रहीं थी, शाम तक आसमान भी साफ़ हो गया था .. अँधेरा छाने लगा था ..रात्री भोजन के बाद जल्दी जल्दी उसने बर्तनों को खंगाला और आड़े तिरछे अलमारी में पलट कर छत की ओर दौड़ी .. आज आकाश पहले से भी साफ़ था .. आज वह सितारे को आवाज लगाएगी, बताएगी कि वह उसको प्यार करती है, आज इस साफ़ आसमान में उसकी आवाज वहां तक पहुँच सकती है .. और वह कहेगी सितारे से इन डरावनी आँखों से दूर उसे अपने पास उड़ा ले चल .. अपनी किरणों के साथ .............

वह छत पर पहुंची और जैसे ही आकाश की ओर देखा उसे एक तारा टूट कर गिरता नजर आया .. उसने देर नहीं की और कह दिया टूटते तारे से कि उसको उसके सितारे का साथ दे .. सुना था उसने भी की टूटते तारे से माँगा वरदान खाली नहीं जाता .. सो उसने जल्दी से आँख मूंदी और मांग लिया तारे का साथ .. और कितना खुश हुई वो, आज बताएगी अपने सितारे को कि अब उससे उसको कोई अलग नहीं कर सकता, नजर भर भर कर उसने आकाश में देखा .. एकटक आकाश की ओर नजरें गाढ़ दी .. पश्चिम की ओर आकाश गंगा के किनारे .. लेकिन वह सितारा अपनी जगह कहीं नहीं था, वह जगह खाली थी, निस्तेज थी, सुनसान थी ... हाय! ये क्या हुआ ? तीन दिन में ही उसको देखे बिना सितारा इतना टूटा, इतना टूटा कि टूट कर अपना सब कुछ खो कर, खुद ही मिलने चल पड़ा उस जमीं पर जहाँ वह औरत रहती थी, ... और वह अभागी समझ न सकी जाने वाला कोई नहीं उसका अपना सितारा था नहीं तो वह रोक लेती आवाज लगा लेती या सारे बन्धनों को तोड़ कर उस दिशा की और उड़ लेती जिधर समुद्र था, जमीन थी और जिधर वह तारा गिरा था .............

और जमीन के उस किनारे पर जहाँ समुद्र था, सितारा वहां डूब गया सुना है कि वहां समुद्र में सितारे जैसी मछलियाँ रहा करती हैं .. और वे आँखें, वो दो आँखें जो आकाश की ओर अपलक देख रही थी, देखते देखते हुए पथरा गयी, कहतें हैं कि आज भी पत्थरों की उन पुतलियों में सितारे की चमक है ...

                    .. ......... नूतन १८ / ०१ / २०१३ .. १२ : ३३ रात्री

.

Tuesday, January 15, 2013

नाम क्या दूँ ?



           
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एक नाम गढ़ जाता है जब ….

दिल पर

किसी तीर जैसा,

पत्थरों पर

आलेख जैसा………

दिल पर

या पत्थर पर लिखा नाम

एक मौत और उसकी यादगार भर हो जाता है| ….. नूतन

Monday, January 14, 2013

नाविक तुम कहाँ ?

 
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लहरों सुनो!

न इठलाओ तुम

नहीं रखूंगी कदम उस ओर

जहां तुम पांवों पर मचला करती हो|

निमंत्रण देती हो डूब जाने को

मेरी नियति नहीं कि मैं डूब जाऊं

चाहा डूबना जब भी

पत्थर से जा टकराउ |

मेरे रास्ते के पत्थर अहिल्या बन कर

सर झुकायेंगे नहीं

चोट गहरी दे जायेंगे

पत्थर फिर भी न शर्मायेंगे |

इसलिए लहरों तुम न इतराओ

न मुझको और लुभाओ |

एक अदद नाव मुझे भी चाहिए

डूबने के लिए नहीं

पार पाने के लिए|

लगता है वह रेत के इस बियाबान में

कहीं फंसी पड़ी है..

नाविक तुम कहाँ हो? …. ……नूतन

 

तस्वीर – थाईलेंड .पोटंग बीच

Thursday, January 10, 2013

सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं



सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं ...

और कितने कटेंगे सर : (

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खून लाल ही होता है, किसी भी मजहब, जाति का हो, स्त्री पुरुष का हो, जब बहता है तो कितनी ही पीड़ा और दर्द का सैलाब ले आता है, कितने समंदर बह उठते हैं आँखों से, और सूख जाती हैं आँखें, कितने दिल तड़प उठते है, कितने लोंग बेघर हो जातें हैं, कितनो का संसार छिन जाता है, कितनों का भविष्य अंधेरों में डूब जाता है, आखिर युद्ध, युद्ध ही होता है जिसमे इंसानों का क़त्ल होता है, बड़े स्तर पर सामूहिक क़त्ल सा, फर्क इतना है कि यह समाज में स्वीकार्य है और वैधानिक रूप से मान्य है, एक क़त्ल में अपराधी करार होते हैं दूसरे में तग्मा मिलता है ... साफ़ तौर पर यह अपनी निजता या स्वार्थ से जुड़ा नहीं, बल्कि इनसे ऊपर उठ कर अपने देश के लिए बलिदान करने जैसा है .. देशभक्ति से जुड़ा है यह प्रसंग, किन्तु सैनिकों का खून भी खून है, उनका भी घर परिवार है, वो भी बच्चे हैं अपने माँ पिता के और उनके भी बच्चे हैं ...युद्ध की भयानकता को नजरअंदाज भी करें तो भी युद्ध में जीत किसी की नहीं होती, मानवता हार जाती है जब युद्ध होते हैं|  मैं या कोई भी कभी भी युद्ध का पक्षधर नहीं होगा , दोस्ती नहीं तो नीतियां या फिर कूटनीतियां लेकिन  युद्ध आखिरी विकल्प है ... आप क्या सोचतें है?

  डॉ नूतन डिमरी गैरोला

Tuesday, January 8, 2013

सपनीली आँखें और दूसरा बसंत

  

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वो दो बड़ी सपनीली आँखें
चंचल, भोलीभाली
पर अभागी
दुनियां की डगर से अनजान
जिसका अभी अभी  था
यौवन पर पहला पादान|
मन की कलियाँ चटक रही थी
रंग अनजाने भा रहे थे
छु कर जाती जब हवाएं,
वह कुछ शरमा सी जाती थी |
चहका करती थी चिड़िया सी

परवाज पहला था मगर
आकाश नापने चली |

अनभिग्य थी वह / कब एक पंछी संग उड़ने लगा था / क्यूंकर अच्छा लगने लगा था हमसफ़र बन रास्तों का / अपना सा क्यूँकर लगने लगा था / क्यूं कर विश्वास जगने  लगा था .. मन का मयूर थिरकने लगा जैसे जेठ की तपती दोपहर में रिमझिम बरसात होने लगी थी  / सपनो का संसार सजने  लगा  था| चाहती वह अमराइयों तले मन पंछी संग गुनगुनाए, ऊँचे ऊँचे उड़ती जाए,  वक़्त काटे नहीं गुजरता, क्या उसे प्रेम होने चला था?

नहीं जानती थी कि
प्रेम जाल  बिछा कर
वह बहुरुपिया बहेलिया
उसको  मार गिराएगा |
नहीं जानती थी कि
प्रेम की खुश्बू से सराबोर वह चन्दन
जिसे माथे पर लगाया है
शीतल नहीं,
चांदनी रात के आगोश में आग बरसायेगा  |
नहीं जानती थी वह कि 
सहारे के लिए उठे भुजापाश
जहरीले सर्प की मानिंद
फन फैलाए उसे जकड़ने लगेंगे|
नहीं जानती थी वह कि
तितली कितनी नाजुक होती है |
जितना वह छटपटाती
बाहर निकलने को
वह मकड़जाल में उलझती जाती
और शिकार बन कर आतुर मकड़े का ग्रास बनती जाती है|
मधुमास के सपने चूर हुए थे
बसंत में पत्ता पत्ता झड गया
बोटा बोटा नुच गया था |
सपने चूर चूर कर मन तोड़ 
पंछी अनजान छोर को उड़ चला था |
दिल पर दुःख के फफोले फटने लगे थे 
आँखों में भरभराता समुन्दर था|
चिड़िया ने चहकना छोड़ दिया
तितली ने उड़ना रोक लिया
फूल मुरझाने लगे, रंग मिटने लगा|
प्रेम सिर्फ एक मृगतृष्णा सा
भटकाता  रहा था उसे
ढूंढती रही थी वह साथ
उस पंछी का 
जो उसके सपनो का अरमानों का साथी था
जिसको होना न होना उसका सुख दुःख था
लेकिन बन कर बाज वह
तार तार कर गया उसके पंख अंग अंग
गिर पड़ी वह आसमान से

कटे पंछी की तरह 
गिर पड़ी वह खुद की नजर से
दुनियां जहाँ ने भी फेर ली उससे प्रीती नजर ......


दूसरा बसंत दस्तक देने को था
उधर भीड़ खड़ी थी
सुना है कि वहां मेहतर को  कचरे में मिला था  नवजात शिशु
जबकि उधर नदी में खून से लिथड़ी एक लाश मिली थी
सुना है कि लाश एक छोटी नवयुवती की थी |
दे गयी थी दुसरे बसंत के लिए एक बिन पौधे की कली
पर  अबोध, चंचल किन्तु भोलीभाली
वो अपनी सपनीली  आँखें सदा के लिए मूँद चली थी |


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