वो दो बड़ी सपनीली आँखें चंचल, भोलीभाली पर अभागी दुनियां की डगर से अनजान जिसका अभी अभी था यौवन पर पहला पादान| मन की कलियाँ चटक रही थी रंग अनजाने भा रहे थे छु कर जाती जब हवाएं, वह कुछ शरमा सी जाती थी | चहका करती थी चिड़िया सी परवाज पहला था मगर आकाश नापने चली |
अनभिग्य थी वह / कब एक पंछी संग उड़ने लगा था / क्यूंकर अच्छा लगने लगा था हमसफ़र बन रास्तों का / अपना सा क्यूँकर लगने लगा था / क्यूं कर विश्वास जगने लगा था .. मन का मयूर थिरकने लगा जैसे जेठ की तपती दोपहर में रिमझिम बरसात होने लगी थी / सपनो का संसार सजने लगा था| चाहती वह अमराइयों तले मन पंछी संग गुनगुनाए, ऊँचे ऊँचे उड़ती जाए, वक़्त काटे नहीं गुजरता, क्या उसे प्रेम होने चला था? नहीं जानती थी कि प्रेम जाल बिछा कर वह बहुरुपिया बहेलिया उसको मार गिराएगा | नहीं जानती थी कि प्रेम की खुश्बू से सराबोर वह चन्दन जिसे माथे पर लगाया है शीतल नहीं, चांदनी रात के आगोश में आग बरसायेगा | नहीं जानती थी वह कि सहारे के लिए उठे भुजापाश जहरीले सर्प की मानिंद फन फैलाए उसे जकड़ने लगेंगे| नहीं जानती थी वह कि तितली कितनी नाजुक होती है | जितना वह छटपटाती बाहर निकलने को वह मकड़जाल में उलझती जाती और शिकार बन कर आतुर मकड़े का ग्रास बनती जाती है| मधुमास के सपने चूर हुए थे बसंत में पत्ता पत्ता झड गया बोटा बोटा नुच गया था | सपने चूर चूर कर मन तोड़ पंछी अनजान छोर को उड़ चला था | दिल पर दुःख के फफोले फटने लगे थे आँखों में भरभराता समुन्दर था| चिड़िया ने चहकना छोड़ दिया तितली ने उड़ना रोक लिया फूल मुरझाने लगे, रंग मिटने लगा| प्रेम सिर्फ एक मृगतृष्णा सा भटकाता रहा था उसे ढूंढती रही थी वह साथ उस पंछी का जो उसके सपनो का अरमानों का साथी था जिसको होना न होना उसका सुख दुःख था लेकिन बन कर बाज वह तार तार कर गया उसके पंख अंग अंग गिर पड़ी वह आसमान से कटे पंछी की तरह गिर पड़ी वह खुद की नजर से दुनियां जहाँ ने भी फेर ली उससे प्रीती नजर ...... दूसरा बसंत दस्तक देने को था उधर भीड़ खड़ी थी सुना है कि वहां मेहतर को कचरे में मिला था नवजात शिशु जबकि उधर नदी में खून से लिथड़ी एक लाश मिली थी सुना है कि लाश एक छोटी नवयुवती की थी | दे गयी थी दुसरे बसंत के लिए एक बिन पौधे की कली पर अबोध, चंचल किन्तु भोलीभाली वो अपनी सपनीली आँखें सदा के लिए मूँद चली थी |
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मार्मिक ... टीस सी चुभ गयी पढ़ने के बाद ... बहुत ही संवेदनशील रचना ...
ReplyDeleteBahut sundar Likhti hai aap...Badhai
ReplyDeletehttp://ehsaasmere.blogspot.in/2013/01/blog-post.html
वो अपनी सपनीली आँखें सदा के लिए मूँद चली थी.......बहुत सुन्दर।
ReplyDeleteबासंती अनुभव की गोद में मनुष्य वेदना....
ReplyDeleteआपकी इस पोस्ट की चर्चा 10-01-2013 के चर्चा मंच पर है
ReplyDeleteकृपया पधारें और अपने बहुमूल्य विचारों से अवगत करवाएं
बहुत सुन्दर प्रस्तुति ***^^^***बेदना के स्वर को बड़े ही नायब तरीके से आप ने प्रस्तुत किया है
ReplyDeleteउफ़ बेहद मार्मिक
ReplyDeleteरचना में बहुत गंभीर मुद्दा उछल कर सामने आया है |
ReplyDeleteउम्दा रचना |
आशा
सुंदर लेखन के लिए बधाई,,,,नूतन जी,,
ReplyDeleterecent post : जन-जन का सहयोग चाहिए...
सुंदर लेखन के लिए बधाई,,,नूतन जी,,
ReplyDeleterecent post : जन-जन का सहयोग चाहिए...
बेहद मार्मिक....
ReplyDeleteजैसे -जैसे पढ़ती जा रही थी आँखों के सामने दृश्य उभरता जा रहा था...
पीड़ा के स्वरों को रेखांकित करते शब्द...
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