लहरों सुनो! न इठलाओ तुम नहीं रखूंगी कदम उस ओर जहां तुम पांवों पर मचला करती हो| निमंत्रण देती हो डूब जाने को मेरी नियति नहीं कि मैं डूब जाऊं चाहा डूबना जब भी पत्थर से जा टकराउ | मेरे रास्ते के पत्थर अहिल्या बन कर सर झुकायेंगे नहीं चोट गहरी दे जायेंगे पत्थर फिर भी न शर्मायेंगे | इसलिए लहरों तुम न इतराओ न मुझको और लुभाओ | एक अदद नाव मुझे भी चाहिए डूबने के लिए नहीं पार पाने के लिए| लगता है वह रेत के इस बियाबान में कहीं फंसी पड़ी है.. नाविक तुम कहाँ हो? …. ……नूतन तस्वीर – थाईलेंड .पोटंग बीच |
वाह... उम्दा, बेहतरीन अभिव्यक्ति...बहुत बहुत बधाई...
ReplyDelete्बहुत खूबसूरत प्रस्तुति
ReplyDeleteगहन भाव .... सुंदर प्रस्तुति
ReplyDeleteअर्थ और विचार की सशक्त अभिव्यक्ति .सुन्दर भाव और संकल्पों की कविता .
ReplyDeleteबेहतरीन।
ReplyDeleteनाव मिल जाए बस...फिर कश्ती को पार तो खुद ही लगा लेने की दम रखती है नारी....
ReplyDeleteसुन्दर रचना नूतन जी...
मकर संक्रांति की हार्दिक शुभकामनाएँ!
अनु
सुन्दर प्रस्तुति!
ReplyDelete--
मकरसंक्रान्ति की हार्दिक शुभकामनाएँ!
लहरों का मदमाता ऊर्जस्वित अस्तित्व कुछ और ऊर्जा दे जाता है, जूझने के लिये, हर बार।
ReplyDeleteबहुत सुंदर,उम्दा प्रस्तुति,,,
ReplyDeleterecent post: मातृभूमि,
सुंदर गहन भावभिव्यक्ति....
ReplyDeletewahhh...Bahut umda Rachna ...
ReplyDeletehttp://ehsaasmere.blogspot.in/