Sunday, September 12, 2010

खुद से खुद की बातें ||.. द्वारा - डॉ नूतन गैरोला

मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है
कभी ईर्ष्या उफनती,
कभी लोभ, क्षोभ
कभी मद - मोह,
लहरों से उठते
और फिर गिर जाते ||


पर न हारी हूँ कभी |
सर्वथा जीत रही मेरी,
क्योंकि रोशन दिया
रहा संग मन  मेरे,
मेरी रूह में ,
ईश्वर का बसेरा है ||

स्वरचित - द्वारा - डॉ नूतन गैरोला  11-09-2010  17:32फोटो - खुद के केमरे से      

                                                              फोटो गूगल सर्च  .

16 comments:

  1. एक बेहतरीन कविता नूतन जी !

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  2. बेहद पैनी दृष्टि……………बहुत सुन्दर्।

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  3. अच्छी लगी यह कविता भी ...

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  4. धन्यवाद वंदना जी... मैं सिर्फ दृष्टी रखती हूँ.अभी मुझे लिखना नहीं आता.. बस आप मित्रो का यहाँ साथ मिलता रहे .. तो कुछ हौन्श्ला सा बंधता है ..

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  5. अरविन्द जी धन्यवाद ..आपकी शुभकामनाये

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  6. बहुत सुन्दर ...जब रूह में इश्वर बस रहा हो तो कोई कुछ नहीं बिगाड सकता है|

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  7. सच ही कहा अपने गर इश्वर का बसेरा हो तो फिर किस बात का डर

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  8. बहुत अच्छी प्रस्तुति।

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  9. अतिसुन्दर भावाव्यक्ति , बधाई के पात्र है

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  10. रूह और ईश्वर की मान्यता से असहमत होने के बावज़ूद यह कहूंगा कि कविता अपने शिल्प और सौंदर्य में परिपूर्ण है

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  11. सुन्दर कविता..
    पहला लाइन और अंतिम की एक लाइन जबरदस्त है, -मेरे जिस्म में प्रेतों का डेरा है....., , मेरे रूह में इश्वर का बसेरा है..

    पहला लाइन जब पढ़ा तो लगा बड़ा अजीब सा है :P :P

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  12. "मेरी रूह में,
    ईश्वर का बसेरा है ||"

    ईश्वर का बसेरा अनंत तक रहे - शुभकामनाएं

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  13. वाकई बड़ी दिल्लगी से लिखा आपने इस रचना को...बार-बार पढने को जी चाहे.

    'शब्द-शिखर' पर आपका स्वागत है !!

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  14. बहुत खूब अमृता जी।

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